कुलदेवी कौन है और विभिन्न गौत्रों की कुलदेवियां
आपकी कुलदेवी कौन है,
अगर आपको जानकारी नहीं है तो,
आपका इंतजार समाप्त होने वाला है ।।
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- क्या आपने अपने बड़े-बुजुर्गों, रिश्तेदारों आदि सभी जगह पूछताछ की, लेकिन आपको अपनी कुलदेवी के बारे में जानकारी नहीं मिली।
- तो अब आप निश्चित हो जाइए।
- क्योंकि हमारी टीम ने रामकुमार दाधीच कृति 'कुलदेवी कथा महात्म्य' से प्रेरित होकर व मिशन कुलदेवी से प्राप्त महत्वपूर्ण जानकारी को ग्रहण कर अथक प्रयासों से इस Blog को तैयार किया है। हमारी टीम ने इसके अलावा विभिन्न Social Media Platforms से भी बड़ी मात्रा में Data का संकलन किया है। इसके अलावा बहुत सारे लोगों से विचार-विमर्श किया है। इस Blog में दी गई जानकारी को पढ़कर आप अपनी कुलदेवी के बारे में जान सकते हैं।
कुलदेवी कौन होती है -
- कुलदेवी जो हमारे कुल की अधिष्ठात्री देवी मां होती है। जिस प्रकार एक मां अपनी संतान के हर कष्ट को दूर करने का प्रयास करती है। उसी प्रकार समस्त कुल की मां स्वरूपा नकारात्मक ऊर्जा व संकटों से अपने समस्त कुल की रक्षा करती है।
- कुलदेवी हमारे विकारों का नाश करके हमसे किसी भी कार्य को संपादित करने के लिए ऊर्जा का संचार करती है। जिससे हमारे सभी कार्य निर्विघ्न संपन्न होते हैं।
- प्राचीन काल में हमारे पूर्वज ऋषि भी जानते थे, कि ब्रह्मांड में हर स्थान पर नकारात्मक और सकारात्मक ऊर्जाएं विद्यमान है। यह ऊर्जाएं हमारे मस्तिष्क और जीवन पर गहरा प्रभाव डालती है।
- हमारे घर परिवार में नकारात्मक ऊर्जाओं के प्रभाव से सकारात्मक ऊर्जाएं कारगर नहीं होती है। इसलिए हमारे पूर्वज ऋषियों ने एक-एक शक्ति का चुनाव किया और अपने कुल से जोड़ने के लिए एक नाम दिया था।
- यह शक्तियां शिव की शक्ति माहेश्वरी, ब्रह्मा की शक्ति ब्रह्माणी और विष्णु की शक्ति वैष्णवी है। यह तीनों देवियां इन तीनों देवताओं की ऊर्जा है।
- इन शक्तियों को अपने कुल से जोड़ने पर नकारात्मक ऊर्जा से बचाव होता है। जब हम पूरी आस्था से हमारी कुलदेवी की आराधना करते हैं, तो यह देवी नकारात्मक ऊर्जा के प्रभाव को कम करके हमें सामर्थ्यवान बनाती है, जिससे हम सफलता के शिखर तक पहुंच सके।
- किसी कुल में जब इन देवियों की निरंतर आराधना होने लगी, तब यह देवियां उस कुल की कुलदेवी के रूप में स्थापित हुई।
क्या हुआ जब हम हमारी कुलदेवी को भूल गए -
- समय की परिस्थितियों के कारण हमारे परिवार के लोग अपने पैतृक स्थान को छोड़ने पर मजबूर हुए थे। जब हमारे पूर्वज किसी अन्य स्थान पर किसी भी कारण बस गए। तब यह नुकसान हुआ कि, अपने कुल के लोगों से बिछड़ गए। पीढ़ी दर पीढ़ी यह दूरियां बढ़ती गई और हमने अपने रीति-रिवाज, संस्कार आदि सहित अपनी कुलदेवी को भी भूल गए।
- अब जब कई पीढ़ियां बीत गई है, तो हमारे बड़े-बुजुर्गों को भी हमारी कुलदेवी के बारे में जानकारी नहीं है। जो देवी हमारे परिवार का सुरक्षा कवच थी, अब उसका हमारे घर में वास नहीं होने के कारण कई नकारात्मक अदृश्य शक्तियां हमें कष्ट पहुंचाने लगती है।
- कई बार परिवार में आने वाले संकट और पीड़ाओं से जूझते समय यह सोचते हैं कि कहीं हमारी कुलदेवी नाराज तो नहीं है। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, हमारी कुलदेवी हमसे नाराज नहीं हो सकती। वह हमारे पूरे कुल की मां है और एक मां अपने बच्चों से कभी नाराज नहीं होती है।
- हां यह हो सकता है कि हमने किन्हीं कारणों से हमारी कुलदेवी की आराधना करना बंद कर दिया हो या हमें हमारी कुलदेवी के बारे में जानकारी ही नहीं है, जिससे हम उनकी आराधना कर सकें।
- हम जानते हैं कि हर जगह सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा विद्यमान है। अब जब हमने कुलदेवी की आराधना करना बंद कर दिया है, तब मां का सुरक्षा कवच हमारे ऊपर से हट गया है। इसी कारण नकारात्मक ऊर्जाएं हमारे घर-परिवार में बिना किसी रूकावट के कष्ट पहुंचाने लगती है। इस समय हमारी कुलदेवी का घर में वास नहीं होने के कारण वह हमारी रक्षा नहीं कर पाती।
कुलदेवी तत्व की अवधारणा -
- कुलदेवी तत्व की अवधारणा शाक्त दर्शन पर आधारित है। वह बह्वृचोपनिषद् में कहा गया है कि इस सृष्टि का मूल तत्व देवी ही है और यह सब भौतिक वस्तुएं उसी से उत्पन्न हुई है ।
- देवी भागवत पुराण में देवी को ऐश्वर्य और पराक्रम का मूल स्रोत और उन्हें प्रदान करने वाली कहा गया है। ऐश्वर्या को 'श' तथा पराक्रम को 'क्ति' कहा गया है। इसलिए देवी को 'शक्ति' कहा जाता है।
- इस सृष्टि की रचना से पूर्व देवी आत्म-तत्व के रूप में अस्तित्व रखती थी। सृष्टि की रचना के लिए देवी ने स्वयं को प्रकृति और पुरुष दो रूपों में विभक्त किया था ।
- यह आद्यशक्ति विभिन्न रूप धारण कर सृष्टि की रचना, पालन तथा संहार का कार्य करती है। यह देवी समस्त सृष्टि की मां है और जगदंबा रूप में अपने भक्तों की रक्षा करती है। यह उनका दयालु रूप है ।
- हमारी कुलदेवी उस आदि तत्व शक्ति का ही रूप है, इसलिए हमारे कुल परिवार में प्रत्येक पूजा विधान में कुलदेवी की पूजा सर्वोपरि होती है।
- यह देवी ही हमारे परिवार में नकारात्मक ऊर्जा को भगाकर सकारात्मक ऊर्जा का संचार करती है।
कुलदेवियों का नामकरण कैसे हुआ -
- आदि तत्व शक्ति मां जगदंबा रूप में अपनी संतानों की रक्षा के लिए कई अवतार धारण कर कई स्थानों पर विराजमान है। उनकी यह स्थिति गांव-गांव और शहर-शहर है। इस प्रकार किसी गांव में कई कुल के परिवार उन्हें अपनी कुलदेवी मानते हैं
- मां जगदंबा के इन अवतारों का नाम उन गांव या शहरों के नाम से स्थापित हो गया था। देवी भागवत में कुलदेवियों के किसी क्षेत्र में स्थापित होने की पहचान इस प्रकार की है ।
- निरंतर कालगमन में नए-नए गांव और शहर बसते गए और इसी प्रकार कुलदेवियों की पहचान भी उन्हीं स्थानों के नाम से होने लगी। आज भी कुलदेवियों की पहचान गांव व शहरों से ही होती है। जैसे सच्चियाय माता को ओसिया माता, चामुंडा माता को सुंधा माता, कैला माता को करौली माता आदि कहा जाता है।
- प्राचीन काल में कुछ देवी मां के मंदिर आश्रमों में भी बने होते थे। देवी भागवत पुराण में उनके बारे में कहा गया है ।
- देवी भागवत में किसी गांव या शहर में स्थित किसी मंदिर में प्रतिष्ठापित देवी प्रतिमा के साथ-साथ उस स्थान के महत्व का वर्णन मिलता है।
- इस पुराण में कहा गया है कि उस मंदिर के अलावा वह स्थान भी देवी को अति प्रिय है। इसलिए उस स्थान के दर्शन, देवी का नाम जप और उनके श्री चरण कमल का ध्यान करने से हम दुख के बंधनों से मुक्त हो सकते हैं । इन स्थानों की महिमा के कारण ही कुल देवियां इन गांवों के नाम से प्रसिद्ध हुई जैसा आपने सुना होगा।
कुलदेवी को भूलने का मूल कारण -
- जब किन्हीं कारणों से किसी कुल का कोई परिवार मूल स्थान को छोड़कर अन्यत्र चला जाता है। तब वह वहां भी अपनी कुलदेवी का पाठ-पूजन करता है। लेकिन परिवार के मुख्य धार्मिक आयोजन अपने मूल स्थान पर देवी के मंदिर पर ही किए जाते हैं।
- लेकिन कई बार यह परिवार बहुत दूर पलायन कर जाते हैं और वहां से अपने मूल स्थान पर आना बहुत मुश्किल होता है। इस कारण वे अपने कुलधाम नहीं आ पाए। इसका परिणाम यह हुआ कि लंबे समय अंतराल में कई पीढ़ियां बीतने के कारण वर्तमान पीढ़ियों को उनकी कुलदेवी के बारे में जानकारी नहीं है।
मां सती और उनके शक्तिपीठ -
- देवी भागवत पुराण में वर्णन मिलता है की मां जगदंबा ने प्रजापति दक्ष के घर सती के नाम से जन्म लिया था ।
- मां सती के पिता भगवान विष्णु के परम भक्त और भगवान शिव के घोर-विरोधी थे। लेकिन इन सब के बावजूद सती मां के बड़ी होने पर उनका विवाह भगवान शिव के साथ हुआ।
- एक बार प्रजापति दक्ष द्वारा किए गए बड़े यज्ञ के आयोजन में भगवान शिव को आमंत्रित न करके उनका घोर अपमान किया गया। इस घटना से क्षुब्द होकर मां सती ने दक्ष के घर पर प्राण त्याग दिए। तब भगवान शिव विक्षिप्त होकर सती का शव उठाकर भटकने लगे।
- तब भगवान विष्णु ने उन्हें इस शोक से बाहर निकालने के लिए सुदर्शन चक्र से मां सती के शव के 52 टुकड़े कर दिए। यह टुकड़े पृथ्वी पर जहां-जहां गिरे वहां-वहां यह 52 शक्तिपीठ स्थापित है। इन शक्तिपीठों में मां कई रूपों में पूजी जाती है।
- इसके अलावा मां सती ने कई अवतार भी लिए, जो कुलदेवी के रूप में पूजी जाती है। डॉ. सोहनदान चारण ने कल्याण के शक्ति उपासना अंक में मां सती के कई अवतारों को बताया है। इसके अलावा डॉ. रघुनाथ प्रसाद तिवाड़ी ने 'हमारी कुलदेवियां' पुस्तक में करणी माता को मां सती का अवतार होना बताया है।
हमारी कुलदेवियों की मरुधरा में उपासना-स्थली -
- कुलदेवियों के बारे में शोध-निष्कर्ष करने से यह जानकारी मिलती है, कि इनके मुख्य उपासना केंद्र मरुधरा पर ही स्थापित थे। लेकिन वर्तमान समय में भारत के कई क्षेत्रों में भी उपासना केंद्र स्थापित हो गए हैं।
- इस मरुधरा के मूल निवासी मारवाड़ी कहलाते हैं। मारवाड़ी समाज को जानने से पहले हम इस शब्द के इतिहास को जानने का प्रयास करते हैं।
मारवाड़ और मारवाड़ी -
- मारवाड़ और मारवाड़ी शब्दों की उत्पत्ति 'मरु' शब्द से हुई है। श्री वामन शिवराम आप्टे ने 'संस्कृत-हिंदी कोश' में 'मरु' शब्द का अर्थ एक देश और वहां के निवासियों के रूप में संज्ञा दी है। इसके पश्चात 'मरु-भू' के अर्थ के रूप में मारवाड़ देश कहा है। इस प्रकार मारवाड़ी का अर्थ 'मारवाड़ के अधिवासी' है।
- अखिल भारतीय मारवाड़ी युवा मंच ने एक पुस्तिका 'शाखादिग्दर्शिका' प्रकाशित की है। इस पुस्तिका के अनुसार मारवाड़ी शब्द का अर्थ है - राजस्थान, मालवा, हरियाणा और उनके आसपास रहने वाले उन लोगों से है, जो किसी कारणवश अपने मूल स्थान से वहां चले गए हैं।
मारवाड़ - विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं की जननी -
- वर्तमान समय में पुरातात्विक खुदाईयों से मिली जानकारी के अनुसार विश्व की प्राचीनतम सभ्यताएं सरस्वती और दृषद्वती नदियों के किनारे पनपी और फैली।
- डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार इस प्राचीन सभ्यता का महत्वपूर्ण केंद्र कालीबंगा था, जो सरस्वती नदी के किनारे बसा हुआ था। इस कालीबंगा नगर का विकासकाल 2300 ईसा पूर्व से 1750 ईसा पूर्व तक माना जाता है। आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व सरस्वती नदी इस क्षेत्र को सींचती हुई बहा करती थी, लेकिन सरस्वती नदी के विलुप्त व मार्ग बदलने से यह सभ्यता नष्ट हो गई। जो वर्तमान में केवल अवशेष के रूप में है।
- प्राचीन काल में सरस्वती नदी पंजाब और हरियाणा से होते हुए राजस्थान के गंगानगर, जैसलमेर, बाड़मेर से कच्छ के रास्ते अरब सागर में गिरती थी।
- मनुस्मृति के अनुसार सरस्वती और दृषद्वती नदियों के बीच के क्षेत्र को 'ब्रह्मावर्त देश' कहा जाता था। पुरातत्ववेत्ता भगवान सिंह के अनुसार इस सरस्वती नदी से सिंचित सारस्वत क्षेत्र में वैदिक सभ्यता पनपी थी और यहीं पर अधिकांश ऋग्वेद की रचना हुई थी।
- इस प्रकार बीकानेर संभाग ही ब्रह्मावर्त की वैदिक सभ्यता एवं संस्कृति का विकास केंद्र रहा था। इस ब्रह्मावर्त देश में पंजाब, हरियाणा के कुछ क्षेत्र भी आते थे। कालांतर में सरस्वती नदी व उसकी सहायक नदियों के सूखने पर यहां के निवासी सुरक्षित स्थानों की ओर प्रस्थान कर गए।
- ब्रह्मावर्त देश के वीरान होने के बाद 'ब्रह्मर्षि देश' वैदिक संस्कृति का केंद्र बना। यह ब्रह्मर्षि देश चार भागों में विभक्त था, जो पंजाब, हरियाणा से राजस्थान के अजमेर तक और कुरू व पांचाल जनपदों तक फैला था।
- इस उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पुरातात्विक साक्ष्य से ज्ञात होता है, कि राजस्थान, हरियाणा और उनके आसपास का क्षेत्र मुख्यतः मारवाड़ ही था।
मारवाड़ी समाज में मातृ पूजा -
- मारवाड़ी समाज की संस्कृति वैदिक संस्कृति की सबसे पुरानी प्रतिनिधि है। प्राचीन सभ्यता की खुदाई से ज्ञात होता है कि यहां के मूल निवासी मातृ पूजा किया करते थे। मातृ पूजा की यह परंपरा मारवाड़ी समाज में आज भी कायम है और यह मातृ पूजा की परंपरा कुलदेवी पूजा के रूप में विद्यमान है।
मारवाड़ी समाज में कुलदेवियां -
- इस सृष्टि का सृजन करने वाली देवी शक्ति को अपने कुल की माता के रूप में आराधना करने की आस्था भारतीय संस्कृति की अनुपम परंपरा है। हमारे समाज में कुलदेवी की मान्यता का प्रमुख आधार 'अवतार के सिद्धांत' पर माना जाता है। जब किसी भक्त की भक्ति से प्रश्न होकर देवी किसी घर में अंशावतार के रूप में जन्म लेती है, तो उसकी कृपा पूरे कुल पर होती है।
- इस प्रकार देवी शक्ति के विभिन्न अवतार विभिन्न कालों के कुल देवियों के रूप में स्थापित है। यह आदिशक्ति जगदंबा मां स्थान, समय और अवतार के भेद से अलग-अलग नाम से पूजी जाती है।
- आदिशक्ति का माता के रूप में आराधना करने की हमारी संस्कृति अति प्राचीन है। भारतीय संस्कृति में पूजा-पाठ में 'आत्मन: कुलदेवता भ्यो नम:' कहते हुए कुलदेवी की पूजा का शास्त्रीय विधान है। हमारे धार्मिक रिवाजों में कुलदेवी के प्रमुख धाम पर जात देने व जडूला उतारने की परंपरा है।
- मध्यकाल में गैर-सनातनी धार्मिक विचारों और युद्धों से इस प्राचीन संस्कृति को मानने वाले उपासकों को संकटों का सामना करना पड़ा। इस मारवाड़ी समाज को बहुत सारे कारणों से अपने मूल स्थान को छोड़कर अन्यत्र जाना पड़ा। इस लंबे समय अंतराल के कारण वर्तमान पीढ़ी अपनी कुलदेवी के नाम, स्वरूप, स्थान आदि से अपरिचित हो गई है। हालांकि वर्तमान समय में बहुत सी सामाजिक संस्थाएं इस विषय में Data का संग्रह रखती है। लेकिन यह जानकारी संस्कृत साहित्य में होने के कारण यह शोध उतना आसान नहीं है।
- फिर भी इस प्राप्त शोध से यह जानकारी मिलती है कि कुछ कुलदेवियों की मान्यता एक ही समाज में है, जबकि कुछ की मान्यता अनेक समाजों में है। इसके अलावा कुछ कुलदेवी के नाम में भी विविधता है जैसे ओसियां माता यानी सच्चियाय माता 1444 से गोत्रों की कुलदेवी मानी जाती है और उनके नाम भी संचाय, सचवाय, सूच्चाय, सच्चिका आदि है। इसी प्रकार जीण माता को जीवण, जीणाय, झीण, झीणाय भी कहा जाता है। इन नामों में परिवर्तन होना स्वाभाविक है, क्योंकि यह नाम समयांतराल से अपभ्रंश होते-होते परिवर्तित हो सकते हो जाते हैं।
एक नजर भारतीय समाज की अवधारणा पर -
- जिस प्रकार हमारा शरीर अनेक अंगों से मिलकर बना है, उसी प्रकार भारतीय समाज कई जातियों का समूह है। यह भारतीय जातीय समाज कई गोत्रों में विभक्त होता है। यही गोत्र कुल परंपरा को कहा जाता है।
- प्राचीन काल में कुल दो प्रकार के होते थे।
- प्रथम कुल, ऋषिकुल थे। 10000 छात्रों के कुल की आवास-भोजन की व्यवस्था करने वाले ऋषि को कुलपति कहा जाता था। एक कुलपति के ऋषिकुल में पड़े हुए स्नातक छात्र एक ही ऋषि गोत्र के कहलाते थे।
- दूसरा कुल, के कुलपति पारिवारिक मुखिया होते थे। जो अनेक संयुक्त परिवारों के कुल के स्वामी कहलाते थे। इस परिवारिक कुल परंपरा को गोत्र भी कहा जाता है। जिसे वर्तमान समय में गोत भी कहा जाता है। इस प्रकार हमारी कुलदेवी की मान्यता गोत्र के अनुसार ही होती है। वर्तमान समय में हमने देखा है कि कई एक ही गोत्र से संबंधित लोगों की कुलदेवी एक नहीं होती। जैसे चौहानों की कुलदेवी स्वांगिया माता (आशापुरा माता) है। लेकिन कुछ चौहान जीण माता को भी अपनी कुलदेवी मानते हैं। इसी प्रकार परमार/पवार वंश की कई शाखाएं अपनी अलग-अलग कुलदेवी मानते हैं।
कुलदेवी का स्वरूप -
- हम प्रायः कुलदेवी और कुल देवता को अलग-अलग मानते हैं, लेकिन यह सही नहीं है। यह केवल भाषा के शब्दों के अंतर के कारण है। देवता शब्द मूल रूप से संस्कृत भाषा का है, जो वहीं से हिंदी व राजस्थानी में आया है।
- संस्कृत भाषा में कुलदेवता का प्रयोग स्त्रीलिंग के लिए होता है, जबकि राजस्थानी व हिंदी में पुल्लिंग के लिए। हम राजस्थानी में करणी माता, जीण माता को कुलदेवी और खाटू श्याम जी, बालाजी को कुल देवता रहते हैं। लेकिन संस्कृत भाषा में दिए मंत्रों में कुल देवता शब्द कुलदेवी के लिए ही प्रयुक्त होता है, क्योंकि कुल देवता का स्थान निर्धारण षोडशमातृकाओं के अंतर्गत है।
- कुलदेवी को कुल माता भी कहा जाता है। हमारे विवाह के पश्चात नवविवाहित जोड़े जात देने और जडूला देने कुलदेवी के धाम पर ही जाते हैं।
हमारी कुलदेवियों का नामकरण -
- हमने देखा है कि एक ही कुलदेवी का अलग-अलग स्थान पर नाम में परिवर्तन होता है। यह नाम उनके स्थान के आधार पर होते हैं। जैसे समराय माता, गोठ मांगलोद वाली माता, फलौदी माता, गुड़गांव वाली माता।
- कुछ कुलदेवियों के नाम उनके स्वरूप पर आधारित है। जैसे चतुर्मुखी माता, नागन माता, पंखिनी माता।
- कुछ कुलदेवी का नाम जहां उनका वास होता है, उनके आधार पर होता है। जैसे वट्यक्षिणी माता, नीमवासिनी माता, बडवासन माता, बबूली माता।
- कुछ कुलदेवी का नाम उनकी महिमा पर आधारित है। जैसे अन्नपूर्णा माता, आशापुरा माता, आसावरी माता।
- कुछ कुलदेवी का नाम उनकी विशेष पहचान से भी होता है। जैसे मूसा माता, चूहा वाली माता।
- इन नाम में विविधता का एक कारण हमारी श्रुति परंपरा है। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक यह जानकारी श्रुति परंपरा से पहुंची है। वैसे कुलदेवी के बारे में जानकारी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुंचने का कार्य महिलाओं के द्वारा किया गया। इसी कारण सैकड़ो वर्षों के बाद भी हमारे कुल की कुलदेवी के बारे में जानकारी होती है। जिस प्रकार ब्राह्मणों ने वेद मंत्रों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचने में अपनी भूमिका निभाई थी। उसी प्रकार महिलाओं ने पूजा-अनुष्ठान में गाए जाने वाले लोकगीतों के माध्यम से कुलदेवी की जानकारी अगली पीढ़ी में पहुंचाने में मदद की। इस कारण हमारा समाज महिला शक्ति का ऋणी रहेगा।
क्या करें जब हमें हमारी कुलदेवी का पता ना हो -
- अपनी कुलदेवी के बारे में जानकारी प्राप्त करने का सबसे पहला चरण यह है कि यदि आपका परिवार अपने मूल स्थान को छोड़कर कहीं और बसा है और आपको मूल स्थान के बारे में जानकारी है जहां आपके पूर्वजों के कुल के वंशज रहते हैं, जो आपका ही कुल है। तो आप वहां बुजुर्गों से या आपके कुल के कुलपुरोहित से जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। शायद आपकी कुलदेवी का मंदिर इसी गांव में हो।
- यदि आप अपने मूल गांव का नाम नहीं जानते तो आप अपने गोत्र खांप से इसका पता कर सकते हैं, लेकिन अगर आपको अपनी खांप का पता हो तो। क्योंकि खांप का नाम गांव से ही बनता है, जैसे डीडवाना से डीडवानिया, रताऊ से रतावा।
- अगर आपको ना तो अपने गांव का पता है और ना ही खांप का पता है, अब आप जिस समाज से है उसके किसी ट्रस्ट समूह से मिलिए और अपना गोत्र बताकर जानकारी ले सकते हैं। आजकल सोशल मीडिया पर उनकी कोई वेबसाइट होगी जहां आप आसानी से संपर्क कर सकते हैं। यहां से आपको सहायता मिल सकती है।
- अगर आपको अपने गोत्र की भी जानकारी नहीं है, तो आपको कुछ मुश्किल हो सकती है। लेकिन फिर भी आप अपनी कुलदेवी के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। आमतौर पर हमारे यहां अंतिम संस्कार करने के बाद अस्थियां हरिद्वार में विसर्जित की जाती है। जब हरिद्वार में गंगा स्नान आदि कार्य करवाए जाते हैं तो वहां अमूमन एक पंडित होता है। अगर आप पता कर सके कि आपके परिवार के लोग हरिद्वार में किस पंडित के पास जाते हैं तो आप पूरा रिकॉर्ड प्राप्त कर सकते हैं।
- अगर आप ऊपर किसी भी चरण को करने में सक्षम नहीं है, तो भी आप कुलदेवी की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। किसी भी समाज की एक मूल कुलदेवी होती है। हालांकि यह हो सकता है कि आपके गोत्र का कोई परिवार किसी देवी को स्थापित कर उसे कुलदेवी मानने लगे। लेकिन मूल रूप से एक मुख्य कुलदेवी ही होती है। आप अपने समाज के ट्रस्ट से मिलकर समाज की कुलदेवी का पता करें। यही आपकी मूल कुलदेवी है।
- अब सबसे अंत में यह हो सकता है कि आपको अपने समाज के बारे में ही पता नहीं है, तब भी आपको निराश होने की आवश्यकता नहीं है। भले ही हमें हमारी कुलदेवी के बारे में जानकारी नहीं है। लेकिन हमारे पूर्वज ऋषियों ने कुलदेवी का चुनाव हजारों वर्ष पूर्ण कर लिया था, इसलिए हमारी कुलदेवी यह जानती है कि हम किस वंश परंपरा से हैं। चाहे हम उनके बारे में नहीं जानते, लेकिन वह हमें जानती है।
- कुलदेवी हमारा सुरक्षा कवच है, जो पूजा और यज्ञ में दी जाने वाली हवियों से मजबूत होता है। अपनी कुलदेवी को पहचानने के लिए अब आपको अपने घर में कुलदेवी के प्रतीक रूप की स्थापना कर (नारियल या सुपारी) घर में छोटा सा अनुष्ठान आयोजित करें। इस अनुष्ठान में 'कुलदेव्यै स्वाहा' मंत्र का उच्चारण करते हुए अग्नि में हवा प्रदान करते रहे। इससे यह हवि सीधे ही आपकी कुलदेवी तक पहुंच जाएगी।
- इस प्रकार से यह हवियां ग्रहण करने से आपकी कुलदेवी परिवार पर जागृत होकर आप पर प्रश्न होगी। इसके बाद आप प्रतिदिन पूजा करते समय 'कुलदेव्यै नमः' मंत्र का जाप कर सकते हैं।
- अब बात करते हैं परिवार में जात - झडूले की। जब आपने घर में कुलदेवी को स्थापित कर प्रतिदिन उनका स्मरण करना प्रारंभ कर दिया है। तब आप जात-झडूले के समय घर पर स्थापित कुलदेवी को प्रणाम कर किसी नजदीक के भैरव जी या हनुमान जी मंदिर में यह रस्म संपन्न कर सकते हैं। क्योंकि यह दोनों देव किसी भी देवी के साथ पूजे ही जाते हैं। इससे आपकी कुलदेवी भी प्रसन्न होगी।
- इस प्रकार जब आप निरंतर पूरी आस्था से कुलदेवी का स्मरण करते रहेंगे तो यह देवी आपको अपने वास्तविक स्वरूप से जरूर अवगत करवाएगी।
कुलदेवी की स्थापना कैसे करें -
- जब आपको अपने गोत्र, कुलदेवी या समाज के बारे में जानकारी ही नहीं है। तो घबराने की आवश्यकता नहीं है। अब आप वह कार्य कर सकते हैं, जो आपकी आने वाली पीढ़ी के लिए सर्वश्रेष्ठ होगा।
- जब हमारे हिंदू समाज में गोत्र परंपरा का निर्माण किया गया था, तब एक गोत्र 7 पीढियों तक चलता था। इसके बाद आठवीं पीढ़ी से एक नया गोत्र शुरू होता था, ताकि विवाह आदि कार्यों में अड़चन पैदा ना हो। इस प्रकार आठ गोत्र से शुरू हुआ एक समाज आज हजारों गोत्रों में विभक्त है। वैसे आज भी कई गोत्र निरंतर अपना पुराना गोत्र चलाते आ रहे हैं, लेकिन इसमें कोई बुराई नहीं है। बस कोई अड़चन ना आए।
- यदि आपको अपना गोत्र पता नहीं है, तो यह सही समय है की आप एक नए गोत्र का निर्माण करें। आप अपने पूरे परिवार के साथ चर्चा कर अपने दादाजी या परदादा जी के नाम से एक नए गोत्र का सृजन कर सकते हैं। अब सभी मिलकर गांव में एक स्थान का चयन कर महिषासुरमर्दिनी की प्रतिमा स्थापित करें। उसे अपने गोत्र या गांव का नाम देकर कुलदेवी के रूप में स्थापित कर सकते हैं।
- अब आप इस मंदिर में यज्ञ का अनुष्ठान कर देवी की कृपा प्राप्त कर सकते हैं। आपके इस कार्य से आपकी आने वाली पीढ़ियां आपकी सदैव ऋणी रहेगी।
- अब हम नीचे कुछ वंश/गोत्र की कुलदेवियों के बारे में जानकारी दे रहे है। हो सकता है यहाँ आपको अपनी कुलदेवी के बारे में जानकारी मिल जाए।
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विभिन्न वंश / गौत्र और उनकी कुलदेवियां –
- मेवाड़ के सिसोदिया वंश की कुलदेवी - बाण माता
- शेखावत वंश की कुलदेवी - बाण माता
- चुंडावत राजवंश की कुलदेवी - बाण माता
- पालीवाल ब्राह्मणों के पुरोहित वंश की कुलदेवी - बाण माता
- गहलोत वंश की कुलदेवी - गुजिया माता
- मारवाड़ के राठौड़ वंश की कुलदेवी - नागणेची माता
- जयपुर के कच्छवाहा वंश की कुलदेवी - जमवाय माता
- जैसलमेर के भाटी राजवंश की कुलदेवी - स्वांगिया माता
- मुड़ जाट जाति की कुलदेवी - स्वांगिया माता
- हाडा वंश की कुलदेवी - जोगणिया माता
- खंगारोत वंश की कुलदेवी - ज्वाला माता
- जायसवाल समाज की कुलदेवी - ज्वाला माता
- सोनगरा चौहानों की कुलदेवी - आशापुरा माता
- देवड़ा चौहानों की कुलदेवी - आशापुरा माता
- शाकंभरी के चौहानों की कुलदेवी - शाकंभरी माता
- शेखावाटी के चौहानों की कुलदेवी - जीण माता
- मीणाओं की कुलदेवी - जीण माता
- यदुवंशी जादौन वंश की कुलदेवी - कैला माता (अंजना माता)
- परमार वंश की कुलदेवी - सच्चियाय माता
- ओसवाल वंश की कुलदेवी - सच्चियाय माता
- आबू के परमारों की कुलदेवी - अर्बुदा माता
- अग्रवाल वंश की कुलदेवी - रानी सती माता
- दाधीच ब्राह्मणों की कुलदेवी - दधिमती माता
- सोलंकी वंश की कुलदेवी - खिंवज माता
- झालावाड़ के खींची वंश की कुलदेवी - मां राता देवी
- देवल राजपूत की कुलदेवी - सुंधा माता
- श्रीमाली ब्राह्मण की लाड़वानु गौत्र की कुलदेवी - सुंधा माता
- कंपिजल वंश की कुलदेवी कुलदेवी - सुंधा माता
- गौड़ ब्राह्मणों की कुलदेवी - धोलागढ़ माता
- क्षत्रिय गौड़ वंश की कुलदेवी - मां महाकाली
- चंपावत ठाकुरों की कुलदेवी - सुगाली माता
- झाला वंश की कुलदेवी - आदि शक्ति माता
- बडगूजर वंश की कुलदेवी - आशावारी माता
- तंवर वंश की कुलदेवी - चिलाया माता
- पड़िहार वंश की कुलदेवी - गाजण माता
- कोटा के शासको की कुलदेवी - भदाणा माता
- दहिया राजवंश की कुलदेवी - कैवाय माता
- चंदेल वंश की कुलदेवी - मेनिया माता
- कल्ला वंश की कुलदेवी - लटियाली माता
- खंडेलवाल वंश की कुलदेवी - सकराय माता
- चारण वंश की कुलदेवी - करणी माता
- रावत वंश की कुलदेवी - चंडी माता
- काकतीय वंश की कुलदेवी - चंडी माता
- कणड़वार वंश की कुलदेवी - चंडी माता
- गुर्जर प्रतिहार वंश की कुलदेवी - चामुंडा माता
- ब्राह्मण जोशी वंश की कुलदेवी - चामुंडा माता
- चावड़ा वंश की कुलदेवी - चामुंडा माता
- जेठवा वंश की कुलदेवी - चामुंडा माता
- गौतम वंश की कुलदेवी - चामुंडा माता
- परमार सोढ़ा की कुलदेवी - हरसिद्धि माता
- भरतपुर के जाट वंश की कुलदेवी - राजेश्वरी माता
- जाखड़ समाज की कुलदेवी - पीथल माता
- खरवा वंश की कुलदेवी - सिकोतर माता
- डांगी पटेल की कुलदेवी - आंजणा माता
- सोजत सांखला माली की कुलदेवी - जैकल माता
- छत्रपति शिवाजी की कुलदेवी - मां तुलजा भवानी
- प्रजापति वंश की कुलदेवी - श्रीयादे माता
- पांचाल जाति की कुलदेवी - त्रिपुरा सुंदरी माता
- बुंदेला वंश की कुलदेवी - अन्नपूर्णा माता
- कौशिक वंश की कुलदेवी - योगेश्वरी माता
- कल्चुरी वंश की कुलदेवी - विंध्यवासिनी माता
- सेंगर वंश की कुलदेवी - विंध्यवासिनी माता
- भारद्वाज वंश की कुलदेवी - बिन्दुक्षणी माता
- सिरवी जाति की कुलदेवी - आई माता
- भील समाज की कुलदेवी - आमजा माता
- कंजर समाज की कुलदेवी - चौथ माता
- भोपा समाज की कुलदेवी - विरात्रा माता
- सेन समाज की कुलदेवी - नारायणी माता
- वामदेव - वामेश्वरी माता
- अत्रि - शिवप्रिया माता
- वशिष्ठ - भट्टारिका, सत्या माता
- शुक्र (भृगु) - विश्वा या विश्वेश्वरी माता
- कण्व - भद्रविलासिनी माता
- पराशर - प्रभावती, संहारी माता
- विश्वामित्र - जयादेवी माता
- कपिल - शान्ताद माता , पण्डीकेशी माता
- शौनक - कान्तादेवी माता
- याज्ञवल्क्य - दुर्गेश्वरी माता
- भारद्वाज - श्रीमाता सरस्वती
- जमदग्नि - विद्रुमा माता
- गौतम - विकारवशा, विशालेशा माता
- मुद्गल - वाणी, व्यापिनी माता
- वेदव्यास - विमलेश्वरी माता
- लोमश - तमोअपहारिणी माता
- अगस्त्य - सुक्ष्मा माता
- कौशिक - गौत्रपा, विश्वयोनि माता
- वत्स - सिद्धा, सिद्धेश्वरी माता
- पुलस्त्य - विश्वा, विश्वकाम्या, वशा माता
- माण्डुक - पद्मालया माता
- दुर्वासा - पराशोभा माता
- नारद - भद्रा, भद्रेश्वरी माता
- कश्यप - पिप्पली, त्रिपदा माता
- अंगिरस - विद्युत्प्रभा माता
- पतंजलि - स्वयंप्रभा माता
- मरीच - चारूमुखी माता
- च्यवन - विभावरी माता
- वात्सायन - जयेशी माता
- शांकृत्य - माधवी माता
- गर्ग - देविका माता
- अंगिरा - प्रचण्डा माता
- क्रतु - शाम्भवि माता
- सौकालीन - पुरुहुता माता
- सौपायन - मंदादेवी माता
- सौपर्णि - वरारोहा माता
- मैत्रेय - पुष्करावती माता
- अघमवर्ष - मदोत्कटा माता
- अप्लवान - प्रपूरणी माता
- अष्टिषेण - शुभानंदा माता
- अग्निवेष - तप्तेश्वरी माता
- शक्ति - कल्याणी माता
- दक्ष - लिंगधारिणी माता
- सांख्यायन - अमृता माता
- बिल्व - बिल्वपत्रिका माता
- भार्गव - तारिणीदेवी माता
- हरित - कुमुदा माता
- धनंजय - जयन्ती माता
- कुत्स - कुशोदका माता
- कौत्स - कुमारिका माता
- कर्दम - कोटवी माता
- पाणिनि - आरोग्या माता
- कर्ण - कीर्तिमालिनी माता
- गोभिल - गम्भीरा माता
- सुनक - सुगंधा माता
- कल्पिष - परमेश्वरी माता
- उतथ्य - एकाक्षरा माता
- उत्पत्ति - कामचारिणी माता
- उपमन्यु - महादेवी माता
- उद्दालक - उत्पला माता
- उद्वाह - विपुला माता
- उपलभ्य - पाटला माता
- व्याघ्रपाद - विशाखा माता
- जावाल - ज्वाला माता
- माण्डत्य - माण्डवी माता
- मनु - महालक्ष्मी माता
- अम्बरीष - चंद्रिका माता
- कुश - आशापूर्णा माता
- छान्दन - जगन्न माता
- धारण - कदम्बा माता
- आत्रैय - विकरा माता
- भाडिल्य - मीठेश्वरी माता
- लौकिक - सुपर्णा माता
- कृष्णायन - वसुजा माता, वीतिहव्य माता
- मौद्गालायन - व्यापिनी माता
- मौसक - मुकुटेश्वरी माता
- पुण्यासन - भद्रेश्वरी माता
- कौण्डिन्य - महाबलेश्वरी माता
- गंगासन - महादेवी चामुंडा
- मैत्रावरूण - पिंगलेश्वरी माता
- और्व - शीलमण्डिता माता
- धौम्य - तुलजा भवानी मां
- मार्कण्डेय - महाभागा मां
- जैमिनी - नितम्बा माता
- कात्यायन - कात्यायनी माता
- दालभ्य - अतिशांकरी माता
- लौंगाक्षि - लिंगधारिणी माता
- शौनक - महेशानि माता
- अश्वालायन - शताक्षी माता
- आपस्तम्ब - शाकंभरी माता
- निकुंभ, बैस - कालिका माता
- पंवार, काग, होम्बड, भायल - सच्चियाय / अर्बुदा माता
- परिहार, लेरचा, मोगरेचा - गाजण माता
- सोलंकी - खींवज माता
- चौहान, चोयल, मुलेवा, सेफटा, देवड़ा, चांवड़िया - शाकंभरी / आशापुरा माता
- सिसोदिया, गहलोत, सेणचा, होदपुरा, आगलेचा, खंडाला - बाण माता
- राठौड़, सिंदड़ा, बर्फा,भुबाड़िया - नागणेची माता
- चांदा - असावरी बाण माता
- टाटू - बड़वासन माता
- महर - घटवासन माता
- बैफलावत - पाली माता
- माणतवाल - जीण माता
- बारवाल या बारवाड़ - चौथ माता
- मरमट - दुगाय / दुर्गा माता
- जोरवाल - ब्राह्मणी माता
- ब्याडवाल, गोमलाडू - बांकी माता
- नायी मीणा और ककरोड़ा - नारायणी माता
- सुसावत - अंबा माता
- बैनाडा - आशोजाई चामुंडा माता
- गोहली या गोल्ली - चामुंडा माता
- खोड़ा - सेवड माता
- उषारा - बिजासन माता
- चरणावत या चन्नावत - कैला माता
- जेफ - बधासन माता
- सहेर या सहेरिया - गुमानो माता
- मांदड़ और डाडरवाल - खुर्रा माता
- डोबवाल और डीम्भवाल - ख़लकाई माता
- कटारा - धराल माता
- पारगी, नटरावत, टौरा, मंदलावत, चरणावत - काली माता
- हरमोर - जावर माता
- घुणावत - लहकोड़ माता
- मेवाल - सांवली माता, मैणसी माता, आसावारी माता, अनासन माता
- कोटवाल या कोटवार - मौरा माता
- सिहरा - दांत माता
- मांडल या मांडिया - जोगणिया माता
- जरेडा - वीरताई माता
- चंदवाल - पपलाज माता
- कंजौलिया और करेलवाल - ईंट माता
- आदिवासी मीणा - गोंदला या शीतला माता
- मोटिस - टाड़ माता
- ध्यावणा - ध्यावण माता
- गोठवाल - बनजारी माता
- नैमिणा - दुधाखेड़ी पंचमाता
- जहेला, इलिचा - मनसा माता
- गोमलाडू - सनत्या माता
- जगरवाल - अरहाई माता
मीणा समाज की अन्य कुलदेवियां ------ घुमण्डा माता, चांदली माता, श्यावड़ माता, बिराई माता, सीता माता, खमना माता
- भांभू, पारीक - कुंजला माता
- चौधरी - अर्बुदा माता
- मोर, नावर, नोहर - शीतला माता
- ठेगुआ, गोदारा - मां पार्वती
- बम रोलिया, सिनसीनवार - राजेश्वरी माता
- जाखड़ - धड़ देवली माता
- तेतरवाल - शूठ माता
- ठकुरेले - कांगड़ा माता
- पुनिया, बाहद - कालका माता या कैवाय माता
- चाहर - ज्वालामुखी माता
- बेनीवाल - मैणादे माता
- डाबर, दहिया, कड़वासरा, रणवा, गोगल, मंडीवाल - कैवाय माता
- आगा चौधरी - आनंदी माता
- सहारन - खिवणी माता
- हुडा़, ज्याणी, ईशराण, जोरिया - दुधवती माता
- कुलहरी, जोईया - पाडल माता
- टोकस - अंचल माता
- माजू - फूला देवी माता
- बेरदो - ब्राह्मणी माता
- धोलिया - धोलागढ़ माता
- डागर - नागेश्वरी माता
- शाई - सच्चियाय माता
- डूडी - जीण माता
- थालोड़ - कुहान या खुवान माता
- सोकर - कलावती माता
- सांखला - सच्चियाय माता
- बसरा - लहेकोड़ माता
- लटियाल - लटियाल माता
- दाका - दाकेश्वरी माता
- ढाका - रानी सती माता
- अजमेरा - नौसर माता
- असावा - दूदल माता, असावरी माता
- अट्ठल, करवा, कासट, डागा, परताणी, बागरड या बांगड, बिहाणी, बिड़ला, मालू, मंत्री,राठी, लड्डा, लाखोटिया, सारड़ा, रांधड़, सिकची - सच्चियाय माता
- आगीपाल - भैसाद माता
- आगसूड़ - जाखण माता
- ईनाणी - जैसल माता
- कांकाणी - आमल माता
- काहालिया - लिकासन माता
- कलंत्री, कालानी, गट्टानी, टावरी, फलौड़, भंसाली, मोदानी, लाहौटी - चांवड़, चामुंडा माता
- कचोलिया, खटवड़, गगराणी, देवपुरा, नौलखा, बिदादा - पाढाय माता
- काबरा - सुषमाद माता
- कालिया - आशावरी माता
- गदईया, छापरवाल, सोमाणी - बंधर माता
- गिलड़ा, परवाल या पौरवाल - मात्री माता
- चांडक, तापड़िया - आशापुरा माता
- चौखड़ा - जीवण माता
- चेंचाणी, भूराड़िया, मणियार - दधिमती माता
- जाजू, हेड़ा - ब्राह्मणी माता
- जाखेटिया - सिसणाय माता
- झंवर - गायल माता, सुद्रासन माता
- डाड - भद्रकाली माता
- तोषणीवाल और तोतला - खूंखर माता
- दरक - मूसा माता
- दरगड़, भंडारी - नागणेची माता
- धूत - लिकासन माता
- धूपड़ - फलौदी माता
- नवाल - नवासण माता
- न्याति, भूतडा़ - खीमज माता
- नावंधर - धरजल माता
- बलदुआ - हिंगलाज माता
- बाहेती - सांडल माता
- बालदी - गारंस माता
- बूब - भद्रकाली
- बजाज - गायल माता
- बंग - खांडल माता
- भट्टड़ - बीसल माता
- मालपानी - सांगल माता
- मानधन्या - सूरल्या या मूंगधनी माता
- मूंदड़ा - मूंदल माता
- मंडोवरा - धोलेश्वरी माता
- लोहिया - शामल माता
- सोनी - सेवलिया माता
- सोढाणी - जीण माता
- हुरकट - बीसवंत माता
- बनावरिया, टाक, नाग, ताहानपुरा, गऊहेरा - जीण माता
- साढ़ मेहता, अतरेलिया, तनोलिया, टीकाधर - बटवासन माता
- सहांरिया - मंगलविनायकी माता
- नैपालिया, घुरू, धूहू - पिपलासन माता
- राजोरिया, कुस्या - यमुना माता
- एंदला (नारनोलिया) - ककरासण माता
- छार छोलिया - भांणभासकर माता
- ककरानिया, गलगोटिया, दिल्लीवाल, करना, धनोरिया, गुवालैरिया, कीलटौल्या - आशापुरा माता
- सीसोल्या, ध्रुबास - श्री साउलमाता
- नौसरिया, बकनोलिया, भांडासरिया - श्री पांडवराय माता
- कटारिया - द्रावड़ी हीरायन माता
- कलोल्या, आंबला - लक्ष्मी माता
- चंदेरीवाल - योगाशिणी माता
- पत्थरचट्टा, छांगरिया - चंडिका माता
- मासी मुरदा - जयंती माता
- अभीगत, टंकसाली - सोनवाय माता
- शिकरवाल, सेवाल्या, विदेवा - अंजनी माता
- नौहरिया - कुलक्षामिणी माता
- सांवलेरिया, कुलहल्या, जलेश्वरिया - बीजाक्षण माता
- जोचबा - राजराजेश्वरी माता
- सिरभी - श्री गुगरासण माता
- कामिया, कटारमला, कौटेचा, गडनिया, सौभारिया, महाबनी, नाग पूजा हुसैनिया - हुलहुल माता
- चोबिसा, जाजोरिया, मोहांणी, मगोडरिया, पासोदिया - चामुंडा माता
- माछर - कणवाय माता
- कंबाणिया - पाड़मुखी माता
- तैनगरा - हर्षशीलि माता
- धोलामुखा - इंद्राशिणी माता
- मथाया - विश्वेश्वरी माता
- धीपला - अंबा माता
- होदकसिया - ज्वालामुखी माता
- बकनिया - शारदा माता
- कवड़ीपुरिया - अर्बुदा माता
- तबकलिया - श्री देहुलमाता
- कुरसोल्या - श्री जगन्ना माता
- वरणी - नारायणी माता
- हेलकिया - कमलेश्वरी माता
- सिरोड़िया - पुरुसोत्मा माता
- सादकिया, छोलगुर - कमलासन माता
- महिषासुरिया - महिषमर्दिनी माता
- सिंमारा - कुण्डासण माता
- माखरपुरिया, पुनहारा - पाढाय माता
- सरपारा - हींगुलाद माता
- लोहिया - प्राणेश्वरी माता
- सिणहारिया - बेछराय माता
- वरण्या - सांवली माता
- आसौरिया - लक्ष्मीया हलड़ माता
- फूलफगरसूहा - पहाड़ाय माता
- आल - आईनाथ, स्वांगिया माता
- विपावत, भीम, गांगल, पेवाला, सांगावत - बायण माता
- उलवा, आंडु - चामुण्डा माता
- बार - बीसभुजा माता, बीसा माता ( सांठिका गांव)
- सेलाणा - आशापुरा माता (नाडोल), ममाय देवी (बागोरिया)
- साम्भड़, किरमटा, बाछावत, कालर, आजना - ममाय माता (बागोरिया)
- देऊ, बिड़ा - सच्चियाय माता
- पड़िहार - गाजण माता
- लुकाभीम, गधवा भीम - ब्राह्मणी माता (सालोड़ी)
- काश्यपि (कश्यप, काश्यप, काशिव, काशी, काशीव, काशपि, काशपी, कशप, कश्यपस, कच्छप) - जाखन, जीवन, सनमत, अर्चट, नागन, नागन फूसन, सोड़ल, शक्रा, सोना, कोढ़ा माता
- कोचहस्ति (कोचलस, कुचलस, कुचलश, कुत्स, कुछलस, कुछलश, कोछलस, कोछलश, कुचस, कुच्छस, कोचलश) - भैसा, चंढी, नागन, नागन फूसन, कुलाहल माता
- विद (विदलस, बंदलस, विदस, बिदलस, बिदलश, बिंदल, बदलश, वैद्य, बिदस, बनकस, वद, बादलिश, बंदलिस, बंदलश, बिंदलस, बदलस, बद, विदलश, बदलिस) - आंचल, नीमा, ब्राह्मणी, नागन फुसन, नागन, मंगीठी, बबूली, सुरजन, ककरा, शीतला, माहुल, ऊखल माता
- गांगेय (गागलस, गागलश, गांगवश, गांगवस, गांगेवश, गांगेवस, गांगलश, गांगलस, गार्गेय, गार्गस, गार्गश, गागलिश, गागलिस, गार्गेयश, गार्गेयस) - अंबा, नायन, चामुंडा, रौसा, रौसाईटा, अर्चट, अपरा, ईटा माता
- गालव (गोलस, गोलव, गोलश, गालिश, गालविष, गोलिस, गोचलस, गोचलश, गोछलस, गोलवश, गोलवस, गोलविस, गोलविश, गालवस, गालविस, गालविश, गालव, गोलव) - शक्रा, रौसाईटा, शाकम्भरी, नागन, रौसा माता
- वत्स (बछलस, बछलश, बच्छस, बच्छश, बकरस, बगलस,वत्सस, व्तस, वात्स, बाछलिस, वाचलिस, वत, बत, वक्ष, बस-बछ, बछश, बच्छस, वच्छ, बचलश) - चाख मुंडेरी, चावड़, ककरा, नागन स्याह, आंचल, नीमा कनवस, ईटा, ऊखल, वामन माता
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