राज्य की नीति निर्देशक तत्व (Directive Principle of State Policy) सरल भाषा में IAS PCS RAS Pre & Mains Special

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राज्य की नीति निर्देशक तत्व

भारतीय संविधान के भाग-4 में अनुच्छेद 36 से 51 तक राज्य की नीति निर्देशक तत्वों (Directive Principles of State Policy) का उपबंध किया गया है, जो कि भारत ने आयरलैंड से ग्रहण किए हैं तथा आयरलैंड ने स्पेन से ग्रहण किए थे।

  • नीति निर्देशक तत्वों को संविधान में शामिल करने का मुख्य उद्देश्य लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। संविधान सभा में संवैधानिक सलाहकार बी. एन. राव के द्वारा नीति निर्देशक तत्वों की अनुशंसा की गई तथा तेज बहादुर सप्रू के द्वारा इसके प्रारूप का निर्माण किया गया। 
  • नीति निर्देशक तत्वों की सर्वप्रथम अभिव्यक्ति 1935 के भारत शासन अधिनियम में अनुदेश पत्र के रूप में होती है। 
  • नीति निर्देशक तत्वों में सामाजिक न्याय एवं गांधीवादी सिद्धांतों की अभिव्यक्ति होती है। (गांधीवादी सिद्धांत अनुच्छेद 40, 43, 46, 47 एवं 48 है
  • डॉ. भीमराव अंबेडकर ने नीति निर्देशक तत्वों को भारतीय संविधान की अनोखी विशेषता माना है। जिसमें लोक कल्याणकारी राज्य का लक्ष्य निहित है। 
  • ऑस्टिन ने नीति निर्देशक तत्वों को राज्य की आत्मा की संज्ञा दी है। 
  • संविधान सभा में हरि विष्णु कामथ ने नीति निर्देशक तत्वों के स्थान पर "राज्य के मौलिक तत्व" की अनुशंसा की थी। 
  • वर्ष 2000 में गठित संविधान समीक्षा आयोग ने भाग-4 के लिए राज्य की नीति के निदेशक तत्व एवं अनुयोजन की सिफारिश की। 

नीति निर्देशक तत्वों की प्रकृति / स्वरूप

अनुच्छेद 36 - परिभाषा 

  • इसके अंतर्गत नीति निर्देशक तत्वों के संबंध में राज्य को परिभाषित किया गया है तथा राज्य का वही अर्थ है जो की भाग-3 में मूल अधिकारों के लिए है। 

अनुच्छेद 37 - इस भाग में अंतर्विष्ट तत्वों का लागू होना 

  • भाग-4 में दिए गए उपबंध प्रवर्तनीय नहीं होंगे परंतु यह शासन के मूलभूत सिद्धांत है तथा राज्य का यह दायित्व है कि वह विधि निर्माण में नीति निर्देशक तत्वों को लागू करें। 

अनुच्छेद 38 - राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा 

  • राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करेगा। 38(1) के अंतर्गत यह प्रावधान किया गया है कि राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था स्थापित करेगा जिससे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय की प्राप्ति की जा सके और लोक कल्याण की प्राप्ति के लिए कदम उठाए जा सके (प्रस्तावना में दिए गए सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय की अभिव्यक्ति अनुच्छेद 38(1) में होती है)। 

अनुच्छेद 39 - राज्य द्वारा अनुसरणीय कुछ नीति तत्व 

  • इसके अंतर्गत राज्य को कुछ नीतियों के पालन के लिए दिशा निर्देश जारी किया गया है। 39(a) के अंतर्गत राज्य के द्वारा स्त्रियों तथा पुरुषों के लिए समान रूप से जीविका के लिए कदम उठाया जाएगा, 39(b) के अंतर्गत राज्य भौतिक संसाधनों के स्वामित्व तथा नियंत्रण की इस प्रकार व्यवस्था करेगा कि अधिक से अधिक सार्वजनिक हितों की प्राप्ति की जा सके, 39(c) के अंतर्गत राज्य धन तथा उत्पादन के संसाधनों के केंद्रीकरण को रोकने के लिए कदम उठाएगा, 39(d) के अंतर्गत राज्य महिलाओं तथा पुरुषों के लिए समान कार्य हेतु समान वेतन की व्यवस्था करेगा, 39(e) के अंतर्गत राज्य श्रमिक पुरुषों एवं स्त्रियों की स्वास्थ्य एवं शक्ति का संरक्षण करेगा तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग नहीं होने देगा। 

अनुच्छेद 40 - ग्राम पंचायतों का गठन 

  • इसके अंतर्गत राज्य ग्राम पंचायत के गठन के लिए कदम उठाएगा तथा उन्हें अधिक से अधिक शक्तियां एवं संसाधन प्रदान करेगा ताकि वे स्वायत शासन की इकाई के रूप में कार्य कर सके। 

अनुच्छेद 41 - कुछ दशाओं में काम, शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार

  • राज्य अपनी आर्थिक सामर्थ्य और विकास की सीमाओं के भीतर काम पाने, शिक्षा, बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और नि:शक्तता की दशाओं में लोक सहायता पाने के अधिकार को प्राप्त करने का प्रभावी उपबंध करेगा।

अनुच्छेद 42 - काम की न्याय संगत और मानवोचित दशाओं का तथा प्रसूति सहायता का उपबंध 

  • राज्य काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं को सुनिश्चित करने के लिए प्रसूति सहायता के लिए उपबंध करेगा।

अनुच्छेद 43 - कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी आदि 

  • इसके अंतर्गत यह उपबंध किया गया है कि राज्य कृषि तथा उद्योगों में सभी मजदूरों को काम उपलब्ध करवाएगा। राज्य के द्वारा यह प्रयत्न किया जाएगा कि उन्हें उचित वेतन मिल सके, वे अवकाश के समय का उपयोग कर सके तथा राज्य के द्वारा कुटीर उद्योग धंधों को प्रोत्साहन प्रदान किया जाएगा। 

अनुच्छेद 44 - नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता

  • राज्य के द्वारा समान नागरिक संहिता के गठन के लिए कदम उठाया जाएगा (समान नागरिक संहिता से अभिप्राय है कि नागरिक मामले, जैसे - विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेना आदि में सभी धर्मों के लिए समान नियमों का निर्माण करना। अभी तक भारत में गोवा को छोड़कर लागू नहीं किया जा सका है। उत्तराखंड राज्य के द्वारा इस दिशा में विधि निर्माण का प्रयास किया जा रहा है)। न्यायपालिका के द्वारा 1985-86 के शाहबानो वाद में, 1995 के सरला मुद्गल वाद में तथा 2017 में सायरा बानो वाद में राज्य को समान नागरिक संहिता के गठन के लिए दिशानिर्देश जारी किए गए।

अनुच्छेद 45 - 6 वर्ष से कम आयु के बालकों के लिए प्रारंभिक बाल्यावस्था देखरेख और शिक्षा का उपबंध (निशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा) 

  • राज्य को 6-14 वर्ष के बालकों के लिए नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा हेतु दिशा निर्देश जारी किया गया है। 86वें संविधान संशोधन 2002 के माध्यम से 6-14 वर्ष के बालकों के लिए नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा को अनुच्छेद 21(A) के अंतर्गत मूल अधिकार बना दिया गया है। परिणामस्वरुप इसी संशोधन से अनुच्छेद 45 की विषय वस्तु में परिवर्तन किया गया है तथा राज्य को 0-6 वर्ष तक के बालकों की देखभाल एवं नि:शुल्क शिक्षा के लिए दिशा निर्देश जारी किए गए हैं। 

अनुच्छेद 46 - अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य दुर्बल वर्गों की शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की अभिवृद्धि

  • राज्य अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों एवं समाज के अन्य दुर्बल वर्गों की आर्थिक एवं शैक्षणिक स्थिति में सुधार के लिए कदम उठाएगा एवं राज्य के द्वारा इन वर्गों का हर प्रकार के शोषण को रोका जाएगा। 

अनुच्छेद 47 - पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊंचा करने तथा लोक स्वास्थ्य का सुधार करने का राज्य का कर्तव्य

  • राज्य के द्वारा पोषाहार एवं लोगों के जीवन स्तर में सुधार तथा स्वास्थ्य का संरक्षण किया जाएगा एवं राज्य मद्य निषेध के लिए कदम उठाएगा। 

अनुच्छेद 48 - कृषि और पशुपालन का संगठन

  • राज्य कृषि तथा पशुपालन का संगठन करेगा एवं गोवध निषेध के लिए कदम उठाएगा। 

अनुच्छेद 49 - राष्ट्रीय महत्व के संस्मारकों, स्थानों और वस्तुओं का संरक्षण

  • राज्य के द्वारा राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों, स्थानों एवं कलात्मक वस्तुओं का संरक्षण किया जाएगा। 

अनुच्छेद 50 - कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण

  • राज्य के द्वारा लोक सेवाओं में कार्यपालिका तथा न्यायपालिका को एक दूसरे से अलग करने के लिए कदम उठाया जाएगा।

अनुच्छेद 51 - अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि

  • राज्य के द्वारा अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में निम्न आदर्शों को प्राप्त करने के लिए कदम उठाए जाएगा - अंतरराष्ट्रीय शांति तथा सुरक्षा की प्राप्ति, विभिन्न राष्ट्रों के बीच न्याय तथा समान पूर्ण संबंधों की स्थापना, आपसी व्यवहार में अंतर्राष्ट्रीय कानून तथा संधियों का आदर, आपसी विवादों को युद्ध के स्थान पर मध्यस्थता के माध्यम से सुलझाना अर्थात् नीति निर्देशक तत्वों में अनुच्छेद 51 में भारतीय विदेश नीति की अभिव्यक्ति होती है क्योंकि भारतीय विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय शांति तथा सुरक्षा की प्राप्ति करना है।

संवैधानिक संशोधनों के माध्यम से जोड़े गए निर्देशक तत्व -

  • 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 के द्वारा निम्न निर्देशक तत्व जोड़े गए - 39(क) के अंतर्गत समान न्याय तथा कानूनी सहायता का प्रावधान, 39(च) के अंतर्गत बालकों की शोषण से सुरक्षा तथा उनके स्वास्थ्य का संरक्षण, 43(क) के अंतर्गत कर्मकारों की उद्योगों के प्रबंध में भागीदारी, 48(क) पर्यावरण का संरक्षण तथा वन्य जीवों की सुरक्षा 
  • 44वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 के द्वारा 38(2) निदेशक तत्व जोड़ा गया। इसके अंतर्गत राज्य विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा।
  • 86वें संविधान संशोधन अधिनियम 2002 के द्वारा अनुच्छेद 45 में 6-14 वर्ष की जगह 0-6 वर्ष का प्रावधान किया गया।
  • 97वें संविधान संशोधन अधिनियम 2011-12 के द्वारा 43(ख) निदेशक तत्व जोड़ा गया। इसके अंतर्गत राज्य के द्वारा सहकारी समितियां का निर्माण तथा उसके प्रोत्साहन पर बल दिया जाएगा।

नीति निर्देशक तत्वों की आलोचना - 

  • नीति निर्देशक तत्वों की आलोचना इस आधार पर की जाती है कि इन्हें मूल अधिकारों के समान न्यायालय के माध्यम से लागू नहीं करवाया जा सकता है।
  • K.T. शाह के अनुसार नीति निर्देशक तत्व एक ऐसा चेक है जिसका भुगतान बैंकों की इच्छा पर छोड़ दिया गया है। 
  • टी. कृष्मामाचारी ने नीति निर्देशक तत्वों को भावनाओं का कूड़ाघर की संज्ञा दी है। 
  • के. संथानम के अनुसार नीति निर्देशक तत्व भारत में केंद्र तथा राज्यों के बीच संवैधानिक टकराव का कारण बनेगा। 
  • परंतु भीमराव अंबेडकर के अनुसार लोगों के प्रति उत्तरदायी कोई भी सरकार नीति निर्देशक तत्वों की अवहेलना नहीं करेगी तथा यदि वह करती है तो उसे चुनाव के समय जनता को जवाब देना होगा। 
  • ठाकुरदास भार्गव के अनुसार नीति निर्देशक तत्व भारतीय संविधान का प्राण / जीवन है।

मूल अधिकार तथा नीति निर्देशक तत्वों में अंतर -

  • मूल अधिकार प्रवर्तनीय है अर्थात इन्हें न्यायालय के माध्यम से लागू करवाया जा सकता है जबकि नीति निर्देशक तत्व प्रवर्तनीय नहीं है और इन्हें न्यायालय के माध्यम से लागू नहीं करवाया जा सकता। 
  • मूल अधिकार व्यक्ति के लिए है जबकि नीति निर्देशक तत्व राज्य के लिए है। 
  • मूल अधिकारों के पास वैधानिक शक्ति विद्यमान है जबकि नीति निर्देशक तत्वों के पास नैतिक तथा राजनीतिक शक्ति विद्यमान है।
  • अनुच्छेद 20-21 को छोड़कर आपातकाल के दौरान मूल अधिकारों को निलंबित किया जा सकता है जबकि नीति निर्देशक तत्व निलंबित अवस्था में बने रहते हैं जब तक की राज्य के द्वारा इन्हें लागू न किया जाए। 
  • मूल अधिकारों की प्रकृति नकारात्मक है जबकि नीति निर्देशक तत्वों की प्रकृति सकारात्मक है।

मूल अधिकार व नीति निर्देशक तत्वों में वर्तमान में संबंध -

  • मौलिक अधिकार तथा नीति निर्देशक तत्वों के संबंधों को लेकर सर्वप्रथम 1951 के चंपाकम दोराई राजन बनाम मद्रास राज्य वाद में विवाद उठा, जिसके अंतर्गत न्यायालय के द्वारा यह निर्णय दिया गया कि दोनों में विरोध की स्थिति में मूल अधिकारों को वरीयता प्रदान की जाएगी।
  • 1959 में केरल शिक्षा विधेयक में न्यायालय के द्वारा सामजस्यपूर्ण निर्वचन का सिद्धांत प्रतिपादित किया तथा यह निर्धारित किया कि दोनों में विरोध की स्थिति में संतुलन स्थापित करने का प्रयत्न किया जाएगा। 
  • 1967 के गोलकनाथ वाद में न्यायालय के द्वारा मूल अधिकारों को सर्वोच्च वरीयता प्रदान की गई तथा सह निर्धारित किया गया की नीति निर्देशक तत्वों को लागू करने के लिए मूल अधिकारों में किसी भी प्रकार का संशोधन नहीं किया जा सकेगा। 
  • 25वें संविधान संशोधन अधिनियम 1971 के माध्यम से अनुच्छेद 31(C) को जोड़ा गया, जिसके अंतर्गत नीति निर्देशक तत्वों में अनुच्छेद 39(B) व 39(C) को मूल अधिकारों पर अभिभावी बनाया गया एवं यह निर्धारित किया गया कि यदि इन्हें लागू करने के लिए राज्य के द्वारा किसी विधि का निर्माण किया जाता है, जिससे अनुच्छेद 14 व 19 का उल्लंघन हो रहा हो तो न्यायालय के द्वारा ऐसी विधि को मूल अधिकारों के अतिक्रमण के आधार पर अवैध घोषित नहीं किया जा सकेगा। 
  • 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 के माध्यम से अनुच्छेद 31(C) का विस्तार किया गया तथा इसके अंतर्गत समस्त नीति निर्देशक तत्वों को मूल अधिकारों पर वरीयता प्रदान की गई। 
  • 1980 के मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ वाद में उच्चतम न्यायालय के द्वारा 42वें संविधान संशोधन से किए गए अनुच्छेद 31(C) के विस्तार को संविधान के मूल ढांचे के उल्लंघन के आधार पर अवैध घोषित कर दिया गया। परंतु न्यायालय के द्वारा 39(B) तथा 39(C) को मूल अधिकारों पर अभिभावी स्थिति को मान्यता प्रदान की गई। 
  • उच्चतम न्यायालय के अनुसार मूल अधिकार एवं नीति निर्देशक तत्वों के मध्य कोई विरोध नहीं है तथा दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। 
  • न्यायालय के अनुसार नीति निर्देशक तत्व लक्ष्य है जिन्हें हमें प्राप्त करना है तथा मूल अधिकार वे साधन है जिनके माध्यम से इन लक्ष्यों को प्राप्त किया जाना है। 
  • उच्चतम न्यायालय के द्वारा इसी बात के अंतर्गत मूल अधिकार एवं नीति निर्देशक तत्वों के मध्य संतुलन को संविधान के मूल ढांचा के अंतर्गत शामिल किया गया।

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