सभी मूल अधिकार (Fundamental Rights) ट्रिक्स से आसान भाषा में IAS RAS PCS Pre & Mains Special

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मूल अधिकार (Fundamental Rights) 

ऐसे अधिकार जो कि नागरिकों को उनके समग्र विकास के लिए संविधान के द्वारा प्रदान किए गए हो तथा जिनका संरक्षण भी संविधान के अंतर्गत किया गया हो उसे मौलिक अधिकार की संज्ञा दी जाती है।

 
  • मूल अधिकारों को देश की मूलभूत विधि अर्थात संविधान में स्थान प्राप्त होता है। यह न्यायालय में वाद योग्य होते हैं एवं व्यक्ति तथा राज्य दोनों के विरुद्ध उपलब्ध होते हैं अर्थात राज्य के द्वारा भी मूल अधिकारों का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है।
  • सर्वप्रथम 1215 ईस्वी में ब्रिटेन में मैग्नाकार्टा कानून के माध्यम से नागरिकों को कुछ अधिकार प्रदान किए गए थे तथा राजा जॉन की शक्तियों को सीमित किया गया था। इसलिए मैग्नाकार्टा कानून को मूल अधिकारों का प्रथम लिखित दस्तावेज माना जाता है एवं ब्रिटेन को मूल अधिकारों की जननी की संज्ञा दी जाती है।
  • 1791 में अमेरिका विश्व का ऐसा देश बना, जिसने अपने नागरिकों को संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त मूल अधिकार प्रदान किये, इसलिए अमेरिका को मूल अधिकारों का जनक माना जाता है।
  • 1895 में लोकमान्य तिलक ने भारत में स्वराज विधेयक के माध्यम से सर्वप्रथम मूल अधिकारों की मांग की थी। 
  • इसके पश्चात होमरूल लीग आंदोलन एवं नेहरू रिपोर्ट में भी मूल अधिकारों की मांग की गई। 
  • कांग्रेस के 1931 के कराची अधिवेशन में भारतीय नागरिकों के लिए स्पष्ट रूप से मूल अधिकारों की मांग की गई थी।
  • परंतु ब्रिटिश शासन के द्वारा 1935 के भारतीय शासन अधिनियम में मूल अधिकारों को स्थान प्रदान नहीं किया।
  • संविधान सभा में सरदार पटेल के नेतृत्व में मूल अधिकार तथा अल्पसंख्यकों की समिति एवं आचार्य कृपलानी के नेतृत्व में उप-समिति का गठन किया गया, जिसकी सिफारिशों पर संविधान के भाग - 3 में अनुच्छेद 12-35 तक मूल अधिकारों का उपबंध किया गया। जिसका प्रावधान भारत में अमेरिका से ग्रहण किया है। 
  • मूल अधिकारों को भारत में मैग्नाकार्टा तथा संविधान की आधारशिला की संज्ञा दी जाती है। मूल अधिकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा सामाजिक नियंत्रण के मध्य समन्वय स्थापित करते हैं। इनका उद्देश्य लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की स्थापना करना एवं विधि के शासन को सुनिश्चित करना है। 
  • मूल अधिकारों में अनुच्छेद 15, 16, 19, 29, 30 केवल भारतीय नागरिकों के पास उपलब्ध है। मूल अधिकारों में अनुच्छेद 17 तथा 24 निरपेक्ष मूल अधिकार है। मूल अधिकारों में अनुच्छेद 20 तथा 21 को आपातकाल के दौरान भी निलंबित नहीं किया जा सकता है। 
  • प्रारंभ में संविधान के द्वारा 7 मूल अधिकार नागरिकों को प्रदान किए गए थे, परंतु 44वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1978 के माध्यम से संपत्ति के अधिकार (अनुच्छेद 21) को, जो की समतामूलक समाज की स्थापना में बाधक था, मूल अधिकारों से हटाकर अनुच्छेद 300(A) के अंतर्गत कानूनी अधिकार बना दिया है। 
वर्तमान में मूल अधिकारों की संख्या 6 है, जिनका विस्तार से आसान भाषा में समझने का प्रयास करते हैं -

अनुच्छेद 12 - परिभाषा 

  • इसके अंतर्गत 'राज्य' को मूल अधिकार के संदर्भ में परिभाषित किया गया है, क्योंकि मूल अधिकार नागरिकों को राज्य के विरुद्ध उपलब्ध होते हैं। 'राज्य' में भारत सरकार तथा संसद, राज्य सरकारें एवं विधानमंडल, स्थानीय निकाय तथा ऐसे अन्य सभी प्राधिकारी शामिल हैं जिन्हें संविधान / विधि के अंतर्गत नियम बनाने अथवा कानून बनाने की शक्ति प्राप्त है। 

अनुच्छेद 13 - मूल अधिकारों से असंगत तथा उनका अल्पीकरण करने वाली विधियां

  • अनुच्छेद 13 को मूल अधिकारों के सुरक्षा कवच की संज्ञा दी जाती है तथा इसके अंतर्गत उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय को यह अधिकार प्रदान किया गया है, कि राज्य के द्वारा निर्मित कोई भी विधि यदि मूल अधिकारों से असंगत है तो न्यायालय के द्वारा उसे अवैध घोषित किया जा सकता है अर्थात अप्रत्यक्ष रूप से 'न्यायिक पुनरावलोकन' की अभिवृत्ति होती है।
  • न्यायालय के द्वारा संविधान से पूर्व एवं संविधान पश्चात दोनों विधियों के संबंध में इसका प्रयोग किया जा सकता है। मूल संविधान में अनुच्छेद 13 के अंतर्गत कुल तीन खंड विद्यमान थे, परंतु 24वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1971 के माध्यम से अनुच्छेद 13 में खंड-4 जोड़ा गया। अनुच्छेद 13(1) का संबंध संविधान के पूर्व की विधि, अनुच्छेद 13(2) का संबंध संविधान के पश्चात् की विधि, अनुच्छेद 13(3) के अंतर्गत विधि को परिभाषित किया गया है जिसके अंतर्गत अध्यादेश, नियम, उप-नियम, उप-विधि, आदेश, अधिसूचना, रूढ़ी / प्रथा आदि शामिल है।
  • अनुच्छेद 13 के अंतर्गत निम्न सिद्धांतों की अभिव्यक्ति होती है -
  • आच्छादन या ग्रहण का सिद्धांत - इसके अंतर्गत यह प्रावधान किया गया है कि संविधान लागू होने के पूर्व की कोई भी विधि यदि मूल अधिकारों से असंगत है तो वह स्वत: ही निष्क्रिय हो जाएगी। 
  • पृथक्करणीयता का सिद्धांत - राज्य द्वारा निर्मित विधि का कोई भाग यदि मूल अधिकारों से असंगत है तो न्यायालय के द्वारा केवल उसी भाग को अवैध घोषित किया जाएगा ना की संपूर्ण विधि को अर्थात असंगत भाग को मूल विधि से पृथक कर दिया जाएगा। 
  • अधित्याग का सिद्धांत - इसके अंतर्गत यह उपबंध किया गया है कि नागरिकों के द्वारा अपने मूल अधिकारों का परित्याग नहीं किया जा सकेगा।

मूल अधिकारों में संशोधन को लेकर संसद तथा न्यायपालिका में टकराव -

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधान में संशोधन की शक्ति संसद को प्रदान की गई है तथा अनुच्छेद 13(2) के अंतर्गत यह उपबंध किया गया है कि राज्य के द्वारा किसी भी ऐसी विधि का निर्माण नहीं किया जा सकेगा, जो मूल अधिकारों के प्रभाव को कम करें अथवा उसे समाप्त करें।

शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ वाद 1951 - 

  • इसके अंतर्गत उच्चतम न्यायालय में प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम को चुनौती प्रदान की गई तथा यह तर्क दिया गया कि अनुच्छेद 13(2) यह प्रावधान करता है कि राज्य ऐसी किसी भी विधि का निर्माण नहीं करेगा, जो की मूल अधिकारों के प्रभाव को कम करें एवं अनुच्छेद 13(2) के अंतर्गत 'विधि' शब्द में संविधान संशोधन विधि भी शामिल है। अतः संसद को मूल अधिकारों में संशोधन की शक्ति प्राप्त नहीं है, परंतु उच्चतम न्यायालय के द्वारा उपर्युक्त तर्क को अस्वीकार किया गया एवं यह निर्णय दिया गया कि अनुच्छेद 13(2) में 'विधि' शब्द में केवल सामान्य विधि शामिल है, ना कि संविधान संशोधन विधि। अतः अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संसद संशोधन के माध्यम से मूल अधिकारों में परिवर्तन कर सकती है।

सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य वाद 1965 - 

  • इसके अंतर्गत न्यायालय ने अपने पूर्व में दिए गए निर्णय को ही स्वीकार किया तथा यह निर्धारित किया कि अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधान संशोधन विधि के माध्यम से संसद मूल अधिकारों को संशोधित कर सकती है।

गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य वाद 1967 - 

  • इसके अंतर्गत उच्चतम न्यायालय ने अपने पूर्व में दिए गए निर्णय को परिवर्तित कर दिया तथा यह निर्णय दिया कि अनुच्छेद 13(2) के अंतर्गत 'विधि' शब्द में संविधान संशोधन भी शामिल है। अतः अनुच्छेद 368 के माध्यम से संसद मूल अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती है। उच्चतम न्यायालय के अनुसार मूल अधिकार सर्वोच्च, पवित्र, पूजनीय है तथा अनुच्छेद 368 में केवल संशोधन की प्रक्रिया बताई गई है ना की शक्ति। अतः संसद मूल अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती है। उच्चतम न्यायालय के द्वारा इसके अंतर्गत भविष्यलक्षी निर्णय का सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसके अंतर्गत यह निर्धारित किया गया कि इसके पूर्व किए गए संशोधन मान्य होंगे परंतु भविष्य में मूल अधिकारों में किसी भी प्रकार का संशोधन नहीं किया जा सकेगा। उच्चतम न्यायालय के अनुसार मूल अधिकारों में संशोधन के लिए संविधान सभा जैसी संस्था का गठन किया जाना चाहिए।

24वां संविधान संशोधन अधिनियम 1971 - 

  • इस अधिनियम के माध्यम से संसद ने गोलकनाथ वाद में दिए गए निर्णय को चुनौती प्रदान की तथा अनुच्छेद 13 में खंड-4 को जोड़ा एवं यह निर्धारित किया कि मूल अधिकारों सहित समस्त संविधान में संशोधन की शक्ति संसद में निहित है तथा यह भी निर्धारित किया कि राष्ट्रपति संसद द्वारा पारित संविधान संशोधन विधेयक पर अनुमति प्रदान करने के लिए बाध्य होगा।

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य बाद 1973 -

  • इसके अंतर्गत उच्चतम न्यायालय में 24वां संविधान संशोधन अधिनियम को चुनौती प्रदान की गई। उच्चतम न्यायालय के द्वारा अपने पूर्व में दिए गए निर्णय को बदल दिया। अनुच्छेद 13(2) के अंतर्गत 'विधि' शब्द से संविधान संशोधन विधि को बाहर किया गया तथा यह निर्णय दिया गया कि अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संसद मूल अधिकारों सहित संविधान में संशोधन कर सकती है परंतु संसद की यह शक्ति असीमित नहीं है। उच्चतम न्यायालय के द्वारा मूल ढांचे के सिद्धांत को प्रतिपादन कर संसद की संशोधन शक्ति को सीमित कर दिया गया।

42वां संविधान संशोधन अधिनियम 1976 -

  • इस अधिनियम के माध्यम से इंदिरा गांधी सरकार के द्वारा अनुच्छेद 368 में खंड-4 व खंड-5 जोड़ा गया, जिसके अंतर्गत यह निर्धारित किया गया कि संसद की संशोधन शक्ति असीमित है एवं संसद द्वारा किए संशोधनों की न्यायालय के द्वारा समीक्षा नहीं की जाएगी अर्थात इस संशोधन अधिनियम के माध्यम से संसद ने अपनी सर्वोच्चता स्थापित करने का प्रयत्न किया।

मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघवाद 1980 -

  • इसके अंतर्गत उच्चतम न्यायालय में 42वें संविधान संशोधन से जोड़े गए अनुच्छेद 368 के खंड-4 व खंड-5 को चुनौती प्रदान की गई तथा उच्चतम न्यायालय के द्वारा मूल ढांचे के उल्लंघन के आधार पर इसे अवैध घोषित कर दिया। उच्चतम न्यायालय के द्वारा संसद की सीमित संशोधन शक्ति एवं न्यायपालिका की स्वतंत्रता तथा न्यायिक पुनरावलोकन को संविधान के मूल ढांचे के अंतर्गत शामिल कर दिया गया।
निष्कर्ष -
  • इस प्रकार वर्तमान में अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संसद अपनी संशोधन शक्ति के माध्यम से मूल अधिकारों को परिवर्तित कर सकती है, परंतु उसकी समीक्षा न्यायालय के द्वारा की जा सकेगी तथा यदि वह संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत का उल्लंघन करता है, तो न्यायालय के द्वारा उसे अवैध घोषित किया जा सकता है।

 समता का अधिकार (Right to Equality) अनुच्छेद 14-18 

अनुच्छेद 14 - विधि के समक्ष समता तथा विधियों का समान संरक्षण 

  • इसके अंतर्गत यह उपबंध किया गया है कि भारतीय राज्यक्षेत्र में सभी व्यक्तियों को कानून के समक्ष समता तथा कानून का समान संरक्षण उपलब्ध करवाया जाएगा। 
  • विधि के समक्ष समता का प्रावधान भारत ने ब्रिटेन से ग्रहण किया है जहां पर इसका प्रतिपादन 'डायसी' के द्वारा किया गया था। इसका अभिप्राय है कि कानून के समक्ष सभी व्यक्तियों की स्थिति समान होगी एवं राज्य सभी व्यक्तियों के लिए एक समान ढंग से कानून का निर्माण करेगा तथा एक समान ढंग से लागू करेगा अर्थात इसके अंतर्गत किसी भी प्रकार के विशेषाधिकारों एवं भेदभाव को मान्यता प्रदान नहीं की है। इसकी अवधारणा नकारात्मक है। 
  • भारत में विधि के समान संरक्षण के प्रावधान को भी अपनाया गया है जो की एक सकारात्मक अवधारणा है तथा इसका उपबंध भारत ने संयुक्त राज्य अमेरिका से ग्रहण किया है। इसका अभिप्राय है कि समान परिस्थितियों में समान लोगों के साथ समान व्यवहार किया जाएगा अर्थात यह भेदभाव को मान्यता प्रदान करता है। परंतु ऐसा भेदभाव उचित तथा तार्किक होना चाहिए। 
  • अपवाद - अनुच्छेद 361 के अंतर्गत राष्ट्रपति तथा राज्यपाल को उनके व्यक्तिगत कार्यों से उन्मुक्ति प्रदान की गई है अर्थात राष्ट्रपति तथा राज्यपाल अपने कार्यकाल के दौरान किए गए कार्यों के लिए न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नहीं होंगे। अनुच्छेद 105 के अंतर्गत संसद सदस्यों के विशेषाधिकार, अनुच्छेद 194 के अंतर्गत राज्य विधानमंडल सदस्यों के विशेषाधिकार, अनुच्छेद 31 (A+B+C) तथा विदेशी राष्ट्राध्यक्ष, कूटनीतिज्ञ, संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधि आदि 
  • अनुच्छेद 14 को उच्चतम न्यायालय के द्वारा भारतीय संविधान के मूल ढांचे के अंतर्गत शामिल किया गया है अर्थात इसे संसद के द्वारा परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। 

अनुच्छेद 15 - धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग तथा जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध

  • इसका उपबंध केवल भारतीय नागरिकों के लिए है।
  • मूल संविधान में अनुच्छेद 15 में तीन खंड थे, जबकि वर्तमान में 6 खंड है। खंड-4 प्रथम संविधान संशोधन से, खंड-5 93वें संविधान संशोधन 2005 से, खंड-6 103वें संविधान संशोधन के माध्यम से जोड़ा गया। 
  • अनुच्छेद 15(1) के अंतर्गत यह उपबंध किया गया है कि राज्य नागरिकों के मध्य केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी भी आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। अन्य आधारों पर राज्य नागरिकों के मध्य भेदभाव कर सकता है।
  • अनुच्छेद 15(2) के अंतर्गत यह प्रावधान किया गया है कि कोई भी नागरिक केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान के आधार पर - (क) दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों, सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश (ख) राज्य नीति से पोषित या सार्वजनिक उपयोग के लिए समर्पित कुआं, तालाब, स्नानाघाट, सड़कों, सार्वजनिक समागमों के स्थान आदि में भेदभाव नहीं किया जाएगा। अर्थात बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिक इनके प्रयोग के हकदार होंगे। 
  • अनुच्छेद 15(2), 15(1) की तुलना में व्यापक है क्योंकि अनुच्छेद 15(1) केवल राज्य के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है, जबकि 15(2) राज्य व व्यक्ति दोनों के विरुद्ध संरक्षण उपलब्ध करवाता है। 
  • अनुच्छेद 15(3) - अपवाद - अनुच्छेद 15(3) के अंतर्गत राज्य को महिलाओं तथा बालकों के विकास के लिए विशेष उपबंध करने की शक्ति प्रदान की गई है। 
  • अनुच्छेद 15(4) - उच्चतम न्यायालय के द्वारा चम्पाकम दोराईराजन बनाम मद्रास राज्य वाद में दिए गए निर्णय को परिवर्तित करने के लिए संसद द्वारा प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम 1951 के माध्यम से अनुच्छेद 15 में खंड-4 जोड़ा गया। जिसके अंतर्गत राज्य को यह शक्ति प्रदान की गई कि वह सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों एवं अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के कल्याण के लिए विशेष उपबंध कर सकेगा। 
  • अनुच्छेद 15(5) -T.M.A. पाई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य वाद 2002 तथा ईनामदार बनाम महाराष्ट्र राज्य वाद 2005 केस में दिए गए निर्णय को बदलने के लिए 93वां संविधान संशोधन अधिनियम 2005 के माध्यम से अनुच्छेद 15 में खंड-5 जोड़ा गया। जिसके अंतर्गत राज्य को अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को छोड़कर निजी शिक्षण संस्थानों में चाहे वह राज्य से सहायता प्राप्त कर रहा हो या नहीं, सामाजिक व शैक्षिक दृष्टि से पिछले वर्गों एवं अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के कल्याण के लिए प्रवेश में सीटें आरक्षित प्रदान करने की शक्ति दी गई है। 
  • अनुच्छेद 15(6) - 103वें संविधान संशोधन अधिनियम 2019 के माध्यम से अनुच्छेद 15 में खंड-6 जोड़ा गया तथा इसके अंतर्गत दो उपखंड (A+B) जोड़े गए।
  • अनुच्छेद 15(6)A - इसके अंतर्गत यह उपबंध किया गया कि राज्य 15(4+5) में उल्लेखित वर्गों के अतिरिक्त आर्थिक रूप से दुर्बल समुदायों (E.W.S.) के कल्याण के लिए कदम उठा सकेगा। 
  • अनुच्छेद 15(6)B - इसके अंतर्गत आर्थिक रूप से दुर्बल समुदाय को शिक्षण संस्थानों में 10% सीटें आरक्षित की गई।

अनुच्छेद 16 - लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता

  • इसका उपबंध केवल भारतीय नागरिकों के लिए किया गया है।
  • मूल संविधान में अनुच्छेद 16 में पांच खंड विद्यमान थे परंतु वर्तमान में 6 खंड विद्यमान है एवं खंड-6 को 103वें संविधान संशोधन अधिनियम 2019 के माध्यम से जोड़ा गया। 
  • अनुच्छेद 16(1) के अंतर्गत यह उपबंध किया गया है कि राज्य सभी नागरिकों को नियुक्तियों में अवसर की समता उपलब्ध करवाएगा। (प्रस्तावना में निहित अवसर की समता को मूल अधिकारों में अनुच्छेद 16 के अंतर्गत व्यावहारिक रूप देने का प्रयत्न किया गया है) 
  • अनुच्छेद 16(2) के अंतर्गत यह उपबंध किया गया है कि राज्य सरकारी नियुक्तियां प्रदान करते समय धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्मस्थान, निवास या इनमें से किसी भी आधार पर नागरिकों के मध्य भेदभाव नहीं करेगा। (अनुच्छेद 16, अनुच्छेद 15 की तुलना में व्यापक है क्योंकि यहां पर उद्भव तथा निवास के आधार पर भी विभेद का प्रतिषेध किया गया है। 
  • अनुच्छेद 16(3) के अंतर्गत यह प्रावधान किया गया है कि राज्य निवास के आधार पर नियुक्तियों में भेदभाव कर सकेगा परंतु इसको लेकर विधि निर्माण संसद के द्वारा किया जाएगा।
  • अनुच्छेद 16(4) के अंतर्गत यह प्रावधान किया गया कि यदि सार्वजनिक सेवाओं में पिछड़े वर्गों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं हुआ हो तो राज्य उन्हें आरक्षण प्रदान कर सकता है।
  • भारतीय संविधान में आरक्षण को दो शर्तों के अधीन किया गया है - (क) जिस वर्ग को आरक्षण प्रदान किया जाए वह सामाजिक तथा शैक्षिक दृष्टि से पिछड़ा हो (ख) उस वर्ग का सार्वजनिक सेवा में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं हुआ हो। 
  • भारतीय संविधान में कहीं भी स्पष्ट रूप से पिछड़ा वर्ग शब्द परिभाषित नहीं है परंतु संविधान के अनुच्छेद 340 के अंतर्गत राष्ट्रपति को शक्ति प्रदान की गई है कि वह पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए आयोग का गठन कर सकता है। 
  • राष्ट्रपति के द्वारा अपनी इस शक्ति का प्रयोग करते हुए सर्वप्रथम 1953 में काका कालेकर के नेतृत्व में प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया गया, जिसमें जिसने 2399 जातियों को पिछड़ा वर्ग में शामिल करने की अनुशंसा की तथा सभी वर्ग की महिलाओं को पिछड़े वर्ग के अंतर्गत शामिल करने की सिफारिश की। 
  • 1979 में वी.पी. मंडल के नेतृत्व में द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया गया, जिसने भारत में पिछड़ी जातियों को ही पिछड़े वर्ग में शामिल कर कुल 3743 जातियों को पिछड़े वर्ग में शामिल करने की सिफारिश की। इनके द्वारा पिछड़े वर्गों के लिए सार्वजनिक सेवाओं में 27% आरक्षण प्रदान करने की अनुशंसा की गई।
  • 1990 में विश्व प्रताप सिंह सरकार द्वारा मंडल आयोग की सिफारिश को लागू करते हुए पिछड़े वर्गों को 27% आरक्षण प्रदान करने की उद्घोषणा की गई।
  • 1991 में नरसिंह राव सरकार द्वारा आर्थिक आधार पर कमजोर वर्गों के लिए सर्वप्रथम 10% आरक्षण प्रदान करने की उद्घोषणा की गई। 
  • 1992 के इंदिरा साहनी बनाम भारत संघवाद (मंडल वाद) के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय के द्वारा आरक्षण को लेकर निम्न निर्णय दिए गए - (i) उच्चतम न्यायालय के द्वारा आर्थिक आधार पर प्रदान किए गए 10% आरक्षण को अवैध घोषित कर दिया क्योंकि उच्चतम न्यायालय के अनुसार भारतीय संविधान केवल सामाजिक तथा शैक्षिक पिछड़ेपन को मान्यता प्रदान करता है। (ii) उच्चतम न्यायालय के द्वारा पिछड़े वर्गों को प्रदान किए गए 27% आरक्षण को वैध माना गया परंतु उच्चतम न्यायालय के द्वारा यह निर्धारित किया गया कि पिछड़े वर्गों में संपन्न वर्ग (क्रीमीलेयर वर्ग) को आरक्षण का लाभ प्रदान नहीं किया जाएगा (क्रीमीलेयर वर्ग का निर्धारण उच्चतम न्यायालय के अनुसार सरकार के द्वारा किया जाएगा तथा 102वें संविधान संशोधन अधिनियम 2018 के अंतर्गत अनुच्छेद 338(B) के अंतर्गत राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई)। (iii) उच्चतम न्यायालय के अनुसार आरक्षण की अधिकतम मात्रता 50% से अधिक नहीं होगी तथा इसे केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही बढ़ाया जा सकेगा। (iv) उच्चतम न्यायालय के अनुसार आरक्षण केवल प्रारंभिक नियुक्तियों में ही प्रदान किया जाएगा।
  • 76वें संविधान संशोधन अधिनियम 1994 के माध्यम से तमिलनाडु सरकार के द्वारा प्रदान किए गए 69% आरक्षण को मान्यता प्रदान कर नौवीं अनुसूची के अंतर्गत शामिल किया गया।
  • 77वें संविधान संशोधन अधिनियम 1995 के माध्यम से अनुच्छेद 16(4) में उपखंड (A) जोड़ा गया, जिसके अंतर्गत राज्य को यह अधिकार प्रदान किया गया कि यदि सार्वजनिक सेवाओं में अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं हो तो राज्य उन्हें पदोन्नति में आरक्षण प्रदान कर सकता है।
  • 81वें संविधान संशोधन अधिनियम 2000 के माध्यम से अनुच्छेद 16(4) में उपखंड (B) जोड़ा गया, जिसके अंतर्गत अग्रनयन के सिद्धांत को मान्यता प्रदान की गई (रिक्त सीटों को अगली भर्ती में जोड़ा जा सकता है)। 
  • 82वें संविधान संशोधन अधिनियम 2000 के माध्यम से अनुच्छेद 335 में संशोधन किया गया तथा यह निर्धारित किया गया कि राज्य अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लिए न्यूनतम अर्हता अंकों में कटौती कर सकेगा। 
  • 85वें संविधान संशोधन अधिनियम 2001 के माध्यम से परिणामिक वरिष्ठता के सिद्धांत को मान्यता प्रदान की गई, जिसके अनुसार अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति को पदोन्नति के साथ-साथ वरिष्ठता का लाभ भी प्रदान किया जाएगा।
  • 70वें, 81वें, 82वें व 85वें संविधान संशोधनों को उच्चतम न्यायालय में नागराजन बनाम भारत संघवाद 2006 में चुनौती प्रदान की गई, जिसके अंतर्गत उच्चतम न्यायालय ने उपर्युक्त संशोधनों को वैध माना परंतु उच्चतम न्यायालय के द्वारा आरक्षण को लेकर कुछ शर्तें निर्धारित की गई। 
  • वर्ष 2018 में जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता वाद में उच्चतम न्यायालय के द्वारा आरक्षण की शर्तों को समाप्त कर दिया तथा यह निर्णय दिया गया कि आरक्षण को सार्थक बनाने के लिए अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति में क्रिमीलेयर वर्ग की संकल्पना को लागू किया जाए यद्यपि अभी तक इसे लागू नहीं किया गया है। 
  • 2020 में मुकेश कुमार बनाम उत्तराखंड राज्य वाद में उच्च न्यायालय के द्वारा यह निर्णय दिया गया कि आरक्षण मूल अधिकार नहीं है तथा इस संदर्भ में राज्य स्वतंत्र है। 
  • 2021 में जयश्री लक्ष्मी राव पाटिल बनाम महाराष्ट्र राज्य वाद में उच्चतम न्यायालय के द्वारा मराठा आरक्षण को अवैध घोषित कर दिया गया।
  • 105वें संविधान संशोधन अधिनियम 2021 के माध्यम से अनुच्छेद 338(B), अनुच्छेद 342(A) तथा अनुच्छेद 366(26C) में परिवर्तन किया गया तथा राज्यों व संघ शासित प्रदेशों को सामाजिक तथा शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की सूची निर्धारण का अधिकार प्रदान किया गया अर्थात इस संबंध में राज्यों को राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग से सिफारिश की आवश्यकता नहीं है।

भारत में आरक्षण का प्रावधान -

  • भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को तीन प्रकार का आरक्षण शैक्षणिक, नियोजन / नियुक्ति व राजनीतिक प्रदान किया जाता है। शैक्षणिक आरक्षण अनुच्छेद 15 के खंड-4, खंड-5 और खंड-6 के द्वारा दिया जाता है। नियोजन या नियुक्ति में आरक्षण अनुच्छेद 16 के खंड-4, खंड-4(A) और खंड-6 के माध्यम से दिया जाता है। राजनीतिक आरक्षण अनुच्छेद 243D, अनुच्छेद 243T, अनुच्छेद 330 और अनुच्छेद 332 के द्वारा दिया जाता है। मूल संविधान में अनुच्छेद 331 के द्वारा आंग्ल-भारतीयों को राजनीतिक आरक्षण प्रदान किया जाता था, लेकिन 104वें संविधान संशोधन अधिनियम 2020 के माध्यम से इसे निरसित कर दिया है। अनुच्छेद 243(D) के अंतर्गत पंचायती राज संस्थाओं में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण का प्रावधान, अनुच्छेद 243(T) के अंतर्गत नगरीय संस्थानों में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण का प्रावधान, अनुच्छेद 330 के अंतर्गत लोकसभा में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लिए सीटों का आरक्षण का प्रावधान, अनुच्छेद 332 के अंतर्गत विधानसभाओं में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लिए सीटों का आरक्षण का प्रावधान, अनुच्छेद 334 - प्रारंभ में संविधान में लोकसभा तथा विधानसभा में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटों का आरक्षण 10 वर्ष के लिए किया गया था, जिसे विभिन्न संविधान संशोधनों के माध्यम से बढ़ाया गया तथा 104वें संविधान संशोधन 2020 के माध्यम से इसे 70 वर्ष से बढ़ाकर 80 वर्ष तक अर्थात 2030 तक के लिए कर दिया है, अनुच्छेद 341 - इसके अंतर्गत अनुसूचित जाति को परिभाषित किया गया है तथा राष्ट्रपति के द्वारा राज्यपाल से परामर्श के पश्चात लोक अधिसूचना के माध्यम से किसी भी जाति को अनुसूचित जाति के रूप में घोषित किया जा सकता है एवं संसद किसी भी जाति को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल कर सकती है अथवा उसे अनुसूचित जाति की सूची से बाहर कर सकती है, अनुच्छेद 342 - इसके अंतर्गत अनुसूचित जनजाति को परिभाषित किया गया है तथा राष्ट्रपति के द्वारा राज्यपाल से परामर्श के पश्चात लोक अधिसूचना के माध्यम से किसी भी जाति को अनुसूचित जनजाति के रूप में घोषित किया जा सकता है एवं संसद किसी भी जाति को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल कर सकती है अथवा उसे अनुसूचित जनजाति की सूची से बाहर कर सकती है, अनुच्छेद 341 - इसके अंतर्गत अन्य पिछड़ा वर्ग को परिभाषित किया गया है तथा राष्ट्रपति के द्वारा राज्यपाल से परामर्श के पश्चात लोक अधिसूचना के माध्यम से किसी भी जाति को अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में घोषित किया जा सकता है एवं संसद किसी भी जाति को अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में शामिल कर सकती है अथवा उसे अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची से बाहर कर सकती है।
  • अनुच्छेद 16(5) - इसके अंतर्गत धर्म के आधार पर विभेद की अनुमति प्रदान की गई है अर्थात राज्य के द्वारा किसी भी धार्मिक या सांप्रदायिक संगठन के प्रबंधन के लिए, उसी धर्म से जुड़े हुए व्यक्ति को नियुक्त किया जा सकेगा।
  • अनुच्छेद 16(6) - 103वें संविधान संशोधन अधिनियम 2019 के माध्यम से इसे जोड़ा गया तथा यह प्रावधान किया गया कि राज्य अनुच्छेद 16(4) के अंतर्गत उल्लेखित वर्गों के अतिरिक्त आर्थिक रूप से दुर्बल समुदायों (E.W.S.) को नियुक्ति एवं पदों में आरक्षण प्रदान कर सकेगा, जो की पूर्व निर्धारित सीमा से 10% की वृद्धि के साथ लागू किया जा सकेगा।

अनुच्छेद 17 - अस्पृश्यता का अंत (Abolition of Untouchability)

  • इसके अंतर्गत अस्पृश्यता की समाप्ति कर दी गई है तथा उसका किसी भी रूप में आचरण प्रतिबंधित कर दिया है। भारतीय संविधान में या किसी भी कानून में स्पष्ट रूप से अस्पृश्यता को परिभाषित नहीं किया गया है, परंतु इसके उन्मूलन को प्रभावी बनाने के लिए अनुच्छेद 35 के अंतर्गत विधि निर्माण की शक्ति संसद को प्रदान की गई है। 
  • संसद ने इस दिशा में 1955 में अस्पृश्यता निवारण अधिनियम का निर्माण किया, जिसे 1976 में परिवर्तित कर नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम का रूप प्रदान किया गया है। 
  • संसद के द्वारा 1989 में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति उत्पीड़न निवारण अधिनियम (एट्रोसिटीज एक्ट) का निर्माण किया गया। 
  • अनुच्छेद 17 निरपेक्ष मूल अधिकार है, जिसका कोई अपवाद नहीं है।

अनुच्छेद 18 - उपाधियों का अंत (Abolition of Titles)

  • इसके अंतर्गत यह उपबंध किया गया की सेना तथा शिक्षा को छोड़कर राज्य के द्वारा किसी भी प्रकार की उपाधि प्रदान नहीं की जाएगी एवं कोई भी नागरिक चाहे वह भारतीय हो या विदेशी। जो भारत में किसी भी लाभ के पद को धारण कर रहा हो, बिना राष्ट्रपति की सहमति के वह विदेश कोई सम्मान, पुरस्कार अथवा उपाधि प्राप्त नहीं कर सकेगा ('लाभ का पद' को समता के अधिकार के अनुच्छेद 18 में स्थान प्रदान किया है)।
  • 1954 से भारत में भारत रत्न, पद्म विभूषण, पद्म भूषण, पद्म श्री आदि पुरस्कारों की शुरुआत की गई। परंतु 1977 में जनता पार्टी की सरकार के द्वारा इस पर प्रतिबंध लगा दिया। परंतु 1980 में इंदिरा गांधी सरकार ने इनकी फिर से शुरुआत की। 
  • बालाजी राघवन वाद 1996 में उच्चतम न्यायालय के द्वारा इन पुरस्कारों को उचित माना गया तथा न्यायालय के अनुसार ये लोगों के मध्य विषमता पैदा नहीं करते हैं तथा यह उपाधि नहीं अपितु केवल सम्मान है। परंतु न्यायालय के अनुसार इनका प्रयोग सार्वजनिक मंचों पर नाम के आगे तथा नाम के पीछे नहीं किया जा सकेगा। यद्यपि इसे प्रभावी बनाने के लिए संसद के द्वारा अभी तक किसी भी प्रकार की विधि का निर्माण नहीं किया गया है।

 स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22) 

अनुच्छेद 19 - वाक् स्वतंत्रता से संबंधित कुछ अधिकारों का संरक्षण (केवल भारतीय नागरिकों के लिए) 

  • अनुच्छेद 19(1) के अंतर्गत 7 अधिकार प्रदान किए गए - अनुच्छेद 19(1)a - विचार तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, अनुच्छेद 19(1)b - शांतिपूर्ण बिना हथियारों के सम्मेलन का अधिकार, अनुच्छेद 19(1)c - समूह, संघ तथा समिति बनाने का अधिकार, अनुच्छेद 19(1)d - भारतीय राज्यक्षेत्र में अर्बाध रूप से भ्रमण / संरक्षण का अधिकार, अनुच्छेद 19(1)e - भारतीय राज्य क्षेत्र में कहीं भी निवास करने / बस जाने का अधिकार, अनुच्छेद 19(1)f - संपत्ति के अर्जन, धारण तथा व्ययन का अधिकार (44वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 के माध्यम से अनुच्छेद अनुच्छेद 19(1) अर्थात् संपत्ति के अधिकार को समाप्त कर दिया। वर्तमान में भारतीय नागरिकों के पास अनुच्छेद 19(1) के अंतर्गत कुल 6 अधिकार है), अनुच्छेद 19(1)g - कोई भी वृत्ति, व्यवसाय, रोज़गार का अधिकार।
  • अनुच्छेद 19(1)a - न्यायपालिका के द्वारा विचार तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता {अनुच्छेद 19(1)a)} के विस्तार को मान्यता प्रदान की गई तथा इसके अंतर्गत कुछ नवीन अधिकारों को शामिल किया गया है। जैसे प्रेस की स्वतंत्रता, सूचना का अधिकार, NOTA का प्रयोग, झंडा फहराने का अधिकार, इंटरनेट की स्वतंत्रता, जानने का अधिकार, विज्ञापन की स्वतंत्रता, चुप रहने का अधिकार, नींद लेने का अधिकार। परंतु 19(2) के अंतर्गत राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था, मानहानि, न्यायालय की अवमानना, अपराध उद्दीपन, विदेशी राष्ट्रों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, भारत की संप्रभुता तथा अखंडता, सदाचार आदि के आधार पर उचित प्रतिबंधों का प्रावधान किया गया है अर्थात अनुच्छेद 19(1)a द्वारा प्रदत्त अधिकार नागरिकों के पास पूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं है। इसलिए संविधान सभा में K.T. शाह ने यह कहा कि भारतीय संविधान एक हाथ से अपने नागरिकों को अधिकार प्रदान करता है तो दूसरे हाथ से प्रतिबंधों के माध्यम से उन्हें वापस छीन लेता है
  • अनुच्छेद 19(1)b - शांतिपूर्ण तथा बिना हथियारों के सभा, प्रदर्शन, जुलूस, सम्मेलन करने का अधिकार प्रदान किया गया है परंतु अनुच्छेद 19(3) के अंतर्गत लोक व्यवस्था तथा भारत की संप्रभुता तथा अखंडता के आधार पर इस पर प्रतिबंध लगाया गया है। 
  • अनुच्छेद 19(1)c - समूह, संघ तथा समिति बनाने का अधिकार। इसके अंतर्गत नागरिकों को राजनीतिक दल, गुट, दबाव समूह, कंपनी श्रमिक संगठन आदि का अधिकार प्रदान किया गया है परंतु यह नागरिकों के पास पूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं है। अनुच्छेद 19(4) के अंतर्गत लोक व्यवस्था, भारत की संप्रभुता तथा अखंडता एवं सदाचार के आधार पर प्रतिबंधों का उपबंध किया गया है। 
  • अनुच्छेद 19(1)d - भारतीय राज्यक्षेत्र में अर्बाध रूप से भ्रमण / संरक्षण का अधिकार। इस अनुच्छेद के माध्यम से भारतीय नागरिक भारत के किसी भी क्षेत्र में भ्रमण कर सकता है लेकिन अनुच्छेद 19(5) के अंतर्गत साधारण जनता के हितों एवं अनुसूचित जनजातियों के हितों के संरक्षण के लिए इस पर प्रतिबंध आरोपित किया गया है। (Inner Line Permit एक यात्रा दस्तावेज है, जो कि उत्तर पूर्व के अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, नागालैंड तथा मिजोरम के लिए है - केवल चार राज्यों में)
  • अनुच्छेद 19(1)e - भारतीय राज्य क्षेत्र में निवास करने या बस जाने का अधिकार। इस अनुच्छेद के माध्यम से भारतीय नागरिक को भारत के किसी भी क्षेत्र में निवास करने का अधिकार है परंतु 19(5) के अंतर्गत साधारण जनता के हितों में एवं अनुसूचित जनजातियों के हितों के संरक्षण के लिए इस पर प्रतिबंध आरोपित किया गया है। 
  • अनुच्छेद 19(1)f - 44वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 द्वारा हटा दिया गया है। 
  • अनुच्छेद 19(1)g - कोई भी वृत्ति, व्यवसाय, कारोबार तथा रोजगार का अधिकार। इस अनुच्छेद के माध्यम से भारतीय नागरिक भारत में कोई भी व्यवसाय शुरू कर सकता है, लेकिन अनुच्छेद 19(6) के अंतर्गत तीन आधारों पर प्रतिबंध आरोपित किया गया है - साधारण जनता के हितों में, किसी भी रोजगार के लिए तकनीकी योग्यता को निर्धारित करना, राज्य के द्वारा किसी भी व्यवसाय पर पूर्णतः या आंशिक रूप से एकाधिकार स्थापित कर लेना।

अनुच्छेद 20 - अपराधों की दोष सिद्धि से संरक्षण 

  • इसके अंतर्गत तीन प्रकार का संरक्षण उपलब्ध करवाया गया है - 
  • (क) भूतलक्षी विधान - इसका अभिप्राय है कि किसी भी व्यक्ति को तब तक अपराधी नहीं ठहराया जा सकेगा, जब तक उसने अपराध के समय प्रचलित किसी भी विधि का उल्लंघन नहीं किया हो एवं उसे उतनी ही सजा प्रदान की जाएगी, जो कि उसके अपराध के समय तत्कालीन कानून में प्रचलित हो, (ख) दोहरी दंड से संरक्षण - इसका अभिप्राय है कि न्यायालय के द्वारा एक अपराध के लिए एक व्यक्ति को एक से अधिक बार दंडित नहीं किया जा सकेगा (यद्यपि विभागीय कार्यवाही इसका अपवाद होगी), (ग) आत्म अभिसंशन से संरक्षण - इसके अंतर्गत यह प्रावधान किया गया है कि किसी भी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध गवाही देने अथवा किसी भी अपराध को स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकेगा। 
  • अनुच्छेद 20 को आपातकाल के दौरान भी निलंबित नहीं किया जा सकता है।

अनुच्छेद 21 - प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण 

  • इसके अंतर्गत यह प्रावधान किया गया है की विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बिना किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन की स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकेगा अर्थात भारतीय संविधान के द्वारा सभी व्यक्तियों के जीवन का संरक्षण किया गया है। 
  • डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अनुच्छेद 21 को भारतीय संविधान का मेरुदंड तथा मेग्नाकार्टा की संज्ञा दी है। 
  • गोपालन वाद 1950 में उच्चतम न्यायालय के द्वारा यह निर्णय दिया गया कि अनुच्छेद 21 लोगों को केवल कार्यपालिका के विरुद्ध संरक्षण उपलब्ध करवाता है अर्थात विधायिका विधि के माध्यम से किसी भी व्यक्ति के जीवन का हरण कर सकती है। परंतु मेनका गांधी बनाम भारत संघवाद 1978 में उच्चतम न्यायालय के द्वारा पूर्व में दिए गए निर्णय को परिवर्तित कर दिया गया तथा यह निर्धारित किया गया कि अनुच्छेद 21 का संरक्षण कार्यपालिका तथा विधायका दोनों के विरुद्ध उपलब्ध है।
  • उच्चतम न्यायालय के द्वारा इसके अंतर्गत विधि की उचित प्रक्रिया का प्रतिपादन किया गया तथा न्यायालय के द्वारा यह निर्णय दिया गया कि विधायिका को विधि निर्माण का अधिकार तो प्राप्त है लेकिन वह विधि उचित, तार्किक एवं प्राकृतिक न्याय के अनुकूल होनी चाहिए।
  • उच्चतम न्यायालय के द्वारा इसके अंतर्गत अनुच्छेद 21 की उदारवादी व्याख्या की तरह अनुच्छेद 19 व 21 को एक-दूसरे का पूरक माना। उच्चतम न्यायालय के द्वारा इसके अंतर्गत यह प्रतिपादित किया गया कि मनुष्य के गरिमापूर्ण ढंग से जीवन जीने के लिए आवश्यक अधिकारों को अनुच्छेद 21 में शामिल किया जाए।
  • न्यायपालिका के द्वारा विभिन्न वादों में अनेक महत्वपूर्ण अधिकारों को जो की मनुष्य के गरिमापूर्ण ढंग से जीवन जीने के लिए आवश्यक है, अनुच्छेद 21 के अंतर्गत शामिल किया गया है- मेनका गांधी बनाम भारत संघवाद - विदेश यात्रा का अधिकार, परमानंद कटरा बनाम भारत संघवाद - निःशुल्क चिकित्सा सहायता का अधिकार, एम.सी. मेहता बनाम भारत संघवाद - स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार, मुरली देवड़ा बनाम भारत संघवाद - सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान का निषेध, ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य वाद - आत्महत्या का निषेध, अरुणा रामचंद्र बनाम भारत संघवाद - निष्क्रिय इच्छा मृत्यु को मान्यता, ए.डी.एम. जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला वाद - जीने का अधिकार, विशाखा बनाम राजस्थान राज्य बाद - कार्यस्थल पर महिलाओं की लैंगिक सुरक्षा, इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन बनाम केरल राज्यवाद (सबरीमाला वाद) - महिलाओं को पुरुषों के समान मंदिर प्रवेश का अधिकार, सुभाष कुमार बनाम बिहार राज्य वाद - स्वच्छ जल का अधिकार, नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघवाद - समलैंगिकता विवाह का अधिकार, मोहिनी जैन बनाम कर्नाटक राज्य वाद - शिक्षा का अधिकार (86वें संविधान संशोधन अधिनियम 2002 के माध्यम से 6 से 14 वर्ष के बालकों के लिए निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा को अनुच्छेद 21(A) के अंतर्गत मूल अधिकार बना दिया गया है जिसे लागू करने के लिए संसद के द्वारा 2009 में राइट टू एजुकेशन अधिनियम का निर्माण किया गया एवं 1 अप्रैल 2010 से भारत में लागू किया गया था। राजस्थान में इसे 1 अप्रैल 2011 को लागू किया गया) 
  • Note: 44वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 के माध्यम से यह उपबंध किया गया कि अनुच्छेद 20 तथा अनुच्छेद 21 को आपातकाल के दौरान भी निलंबित नहीं किया जा सकता है, यह प्रावधान मूल संविधान में नहीं था।

अनुच्छेद 22 - कुछ दशाओं में गिरफ्तारी तथा निरोध से संरक्षण

  • इस अनुच्छेद में दो दशाएं हैं - 
  • 1. सामान्य गिरफ्तारी - इसके अंतर्गत व्यक्ति को अपराध के पश्चात गिरफ्तार किया जाता है तथा गिरफ्तार होने के बावजूद संविधान के द्वारा उसे निम्न अधिकार प्रदान किए गए हैं - (क) गिरफ्तारी का कारण जाने का अधिकार (ख) अपने आत्म-संरक्षण के लिए वकील के प्रयोग का अधिकार (ग) 24 घंटे की अवधि में (यात्रा समय को छोड़कर) मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित होने का अधिकार। परंतु उपर्युक्त अधिकार शत्रु देश के नागरिकों एवं निवारक निरोध के अंतर्गत गिरफ्तार व्यक्तियों को उपलब्ध नहीं होंगे।
  • 2. निवारक निरोध - इसके अंतर्गत व्यक्ति को बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया के अपराध के पूर्व ही गिरफ्तार कर लिया जाता है ताकि व्यक्ति अपराध को अंजाम न दे सके अर्थात इसका उद्देश्य अपराधी को दंडित करना नहीं अपितु उसे अपराध करने से रोकना है। इसका प्रावधान देश की एकता तथा अखंडता, सुरक्षा व्यवस्था, आतंकवादी गतिविधियों से रक्षा आदि के लिए किया गया है। इसके अंतर्गत व्यक्ति को 3 महीने के लिए निरुद्ध (गिरफ्तार) किया जाता है। परंतु न्यायालय द्वारा गठित सलाहकार बोर्ड अथवा संसदीय विधि के माध्यम से इसमें वृद्धि भी की जा सकती है। इसके अंतर्गत संसद के द्वारा अनेक क़ानूनों का निर्माण किया गया। जैसे - निवारक निरोध अधिनियम 1950, आंतरिक सुरक्षा अधिनियम 1971 (MISA), विदेशी मुद्रा संरक्षण एवं तस्करी निवारण अधिनियम 1974 (COFEPOSA), आतंकवाद एवं विध्वंस निवारण अधिनियम 1985 (TADA), आतंकवाद निवारण अधिनियम 2002 (POTA) 
  • 1967 में इंदिरा गांधी सरकार के द्वारा गैर कानूनी गतिविधियां निवारण अधिनियम का निर्माण किया गया, जिसमें समय-समय पर संशोधन किए गए तथा 2019 में इसमें संशोधन कर इस कानून को और अधिक कठोर बनाया गया ताकि आतंकवादी गतिविधियों को नियंत्रित किया जा सके (UAPA)
  • निवारक निरोध समवर्ती सूची का विषय है, जिस पर कानून निर्माण का अधिकार केंद्र तथा राज्य दोनों में निहित है। परंतु यदि किसी कानून को लेकर केंद्र व राज्यों के बीच मतभेद पैदा हो जाता है तो वहां पर केंद्र द्वारा बनाया गया कानून प्रभावी होगा।

 शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)  

अनुच्छेद 23 - मानव का दुर्व्यापार तथा बलात श्रम पर प्रतिबंध

  • इसके अंतर्गत मनुष्य का वस्तुओं की भांति क्रय तथा विक्रय, बेगार तथा बलात् श्रम को प्रतिबंधित कर दिया गया है।
  • इसके अंतर्गत दास प्रथा, बंधुआ मजदूरी, सागड़ी प्रथा, देवदासी प्रथा, न्यूनतम पारिश्रमिक से कम पर कार्य करवाना आदि को प्रतिबंधित कर दिया गया है। परंतु राज्य के द्वारा सार्वजनिक प्रयोजन की दृष्टि से अनिवार्य श्रम की योजना को लागू किया जा सकेगा। परंतु इसे लागू करते समय राज्य धर्म, मूलवंश, जाति, वर्ग या इनमें से किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।
  • अनुच्छेद 35 के अंतर्गत अनुच्छेद 23 को प्रभावी बनाने के लिए विधि निर्माण की शक्ति संसद को प्रदान की गई है। संसद के द्वारा इस दिशा में कुछ कानूनों का निर्माण किया गया है। जैसे- अनैतिक दुर्व्यापार अधिनियम 1956, बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अधिनियम 1976

अनुच्छेद 24 - कारखाने आदि में बालकों के नियोजन का प्रतिषेध 

  • 14 वर्ष से कम आयु के बालकों को कारखानों, खानों तथा जोखिम भरे स्थानों पर कार्य करने से प्रतिबंधित कर दिया गया है। इसका उद्देश्य बालकों की शोषण से सुरक्षा तथा उनके स्वास्थ्य का संरक्षण करना है। 1986 में संसद के द्वारा बाल श्रम प्रतिषेध अधिनियम का निर्माण किया गया, जिसके अंतर्गत 14 वर्ष से कम आयु के बालकों पर हर प्रकार के श्रम पर प्रतिबंध लगा दिया गया। 2016 में इसमें संशोधन कर जोखिम भरे कार्यों में 18 वर्ष की आयु का निर्धारण कर दिया गया है। 2012 में बालकों के यौन हितों की सुरक्षा तथा उनके उसके संरक्षण के लिए पाॅस्को (बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम) का निर्माण किया गया है। 
  • अनुच्छेद 17 व 24 निरपेक्ष मूल अधिकार है जिसका कोई अपवाद नहीं है।

 धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28) 

  • प्रस्तावना में निहित पंथनिरपेक्षता की अभिव्यक्ति मूल अधिकारों में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकारों में होती है जिसका उल्लेख अनुच्छेद 25 से 28 तक किया गया है।

अनुच्छेद 25 - अंतःकरण की और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता 

  • इस मूल अधिकार के द्वारा ईश्वर को अपने अनुसार किसी भी रूप में निर्धारण करने, किसी भी धर्म को मानने, आचरण तथा प्रचार का अधिकार प्रदान किया गया है, परंतु सार्वजनिक व्यवस्था, सदाचार तथा स्वास्थ्य के आधार पर उचित प्रतिबंधों का उपबंध किया गया है।
  • राज्य के द्वारा किसी भी धर्म के गैर धार्मिक पक्ष, सामाजिक कल्याण एवं सुधार के लिए कदम उठाया जा सकेगा तथा हिंदुओं की संस्थाओं को सभी वर्गों के लिए खोलने का उपबंध किया जा सकेगा। यहां से हिंदू से अभिप्राय सिक्ख, जैन एवं बौद्ध से भी है तथा इसी के अंतर्गत सिक्खों को कटार रखने की अनुमति प्रदान की गई है।

अनुच्छेद 26 - धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता 

  • सार्वजनिक व्यवस्था, सदाचार, स्वास्थ्य के अधीन प्रत्येक धर्म या उसके किसी भाग को धर्म एवं दान के लिए संस्थाओं की स्थापना करने का, अपने धर्म से संबंधित कार्यों के प्रबंध का, चल तथा अचल संपत्ति के निर्माण का तथा उस संपत्ति का विधि के अनुसार प्रशासन का अधिकार होगा।

अनुच्छेद 27 - किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए करों के संदर्भ के बारे में स्वतंत्रता 

  • इसके अंतर्गत लोगों को धार्मिक कर प्रदान करने से छूट प्रदान की गई है एवं राज्य द्वारा एकत्रित करों का प्रयोग किसी भी धर्म विशेष के प्रोत्साहन के लिए नहीं किया जा सकेगा। 

अनुच्छेद 28 - राजकीय शिक्षण संस्थानों में धार्मिक शिक्षा पर प्रतिबंध एवं धार्मिक सभाओं में उपस्थिति से स्वतंत्रता

  • इसके अंतर्गत यह प्रावधान किया गया है कि ऐसे शिक्षण संस्थान जो की पूर्ण रूप से राजकीय है अथवा पूर्ण संचालन राज्य निधि से किया जा रहा हो, वहां पर धार्मिक शिक्षा प्रदान नहीं की जाएगी। परंतु ऐसे शिक्षण संस्थान जिसकी स्थापना किसी भी ट्रस्ट या बोर्ड के अंतर्गत की गई हो परंतु जिसका प्रशासन राज्य के द्वारा किया जा रहा हो वहां पर धार्मिक शिक्षा प्रदान की जा सकती है।

 संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 30-31) 

  • ये अधिकार केवल भारतीय नागरिकों के लिए है। भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक वर्ग को परिभाषित नहीं किया गया है तथा धर्म तथा भाषा के आधार पर किसी भी वर्ग को अल्पसंख्यक वर्ग का दर्जा प्रदान किया जाता है तथा इसका निर्धारण राज्य स्तर पर किया जाता है। 

अनुच्छेद 29 - अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण 

  • इसके अंतर्गत भारतीय नागरिकों को अपनी भाषा, लिपि तथा संस्कृति के प्रयोग का अधिकार प्रदान किया गया है। इसका उद्देश्य धार्मिक तथा भाषायी आधार पर अल्पसंख्यक वर्गों के हितों की सुरक्षा करना है। राज्य के द्वारा किसी भी व्यक्ति को धर्म, जाति, भाषा आदि के आधार पर किसी भी शिक्षण संस्थान में प्रवेश से वंचित नहीं किया जाएगा।

अनुच्छेद 30 - शिक्षण संस्थानों की स्थापना तथा प्रशासन का अधिकार 

  • इसके अंतर्गत धर्म तथा भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपने पसंद की शिक्षण संस्थानों की स्थापना करने तथा उनके प्रशासन का अधिकार प्रदान किया गया है एवं राज्य के द्वारा किसी भी शिक्षण संस्थान को सहायता प्रदान करने में इस आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा कि इसका प्रबंधन किसी भी अल्पसंख्यक वर्ग के द्वारा किया जा रहा हैं। 
  • भारतीय संविधान निर्माताओं के द्वारा अल्पसंख्यकों में भय तथा अविश्वास को दूर करने के लिए मूल अधिकारों में संस्कृति तथा शिक्षा के अधिकार का उपबंध किया गया है, जिसका प्रयोग केवल भारतीय नागरिकों के द्वारा ही किया जा सकता है।

 संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32) 

  • भारतीय संविधान निर्माताओं के द्वारा मूल अधिकारों के प्रवर्तन को अनुच्छेद 32 के अंतर्गत अपने आप में एक मूल अधिकार बना दिया तथा इसी के माध्यम से अन्य सभी मूल अधिकारों का संरक्षण किया जाता है। 
  • संविधान सभा में अनुच्छेद 32 की महत्ता के कारण डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इसे संविधान की आत्मा, हृदय, दिल तथा दीवार की संज्ञा दी है। 
  • उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश गजेंद्र गडकर ने अनुच्छेद 32 को भारतीय संविधान का सबसे महत्वपूर्ण अनुच्छेद तथा प्रजातांत्रिक भवन की आधारशिला की संज्ञा दी है।
  • अनुच्छेद 32 के अंतर्गत नागरिकों को अपने मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए सीधे उच्चतम न्यायालय में अभ्यावेदन का अधिकार प्रदान किया गया है। परंतु नागरिक उच्चतम न्यायालय के साथ-साथ उच्च न्यायालय की शरण भी प्राप्त कर सकते हैं।
  • उच्चतम न्यायालय के द्वारा अनुच्छेद 32 के अंतर्गत तथा उच्च न्यायालय के द्वारा अनुच्छेद 226 के अंतर्गत मूल अधिकारों के संरक्षण के लिए पांच प्रकार की रिट का प्रयोग किया जाता है- बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, उत्प्रेषण तथा अधिकार पृच्छा।

बंदी प्रत्यक्षीकरण - 

  • इसका प्रयोग न्यायालय के द्वारा बंदी बनाए गए व्यक्ति को अपने समक्ष उपस्थित करने के लिए किया जाता है ताकि न्यायालय उसकी गिरफ्तारी के औचित्य का परीक्षण कर सके एवं यदि गलत तरीके से गिरफ्तारी हुई है तो न्यायालय के द्वारा उसे मुक्त किया जा सकता है। 
  • इसका प्रयोग राज्य एवं निजी क्षेत्र दोनों के विरुद्ध किया जा सकता है। परंतु जहां पर गिरफ्तारी विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अंतर्गत हुई हो, गिरफ्तारी का संबंध संसद एवं न्यायालय की अवमानना से जुड़ी हो वहां पर इसका प्रयोग नहीं किया जा सकेगा। 

परमादेश -

  • इसका अभिप्राय है कि "हम आदेश जारी करते हैं" अर्थात् इसका प्रयोग न्यायालय के द्वारा किसी भी सार्वजनिक पदाधिकारी, निगम, सरकार आदि को अपने पद से जुड़े हुए सार्वजनिक दायित्वों के निर्वहन के लिए आदेश के रूप में किया जाता है एवं न्यायालय इसके अंतर्गत किसी भी पदाधिकारी से अपने सार्वजनिक कर्तव्यों को नहीं करने का कारण भी पूछ सकता है। परंतु इसका प्रयोग निजी क्षेत्रों, गैर संवैधानिक विभागों, राष्ट्रपति एवं राज्यपाल, उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों आदि के विरुद्ध नहीं किया जा सकेगा। 

प्रतिषेध -

  • यह एक न्यायिक रिट है जिसका अर्थ है 'रोकना'। इसका प्रयोग उच्चत्तर न्यायालय के द्वारा अपने अधीनस्थ न्यायालयों के विरुद्ध किसी भी ऐसे मामले में विचार विमर्श करने से रोकने के लिए किया जाता है जो कि उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर हो। इसका प्रयोग अधीनस्थ न्यायालयों के विरुद्ध तभी किया जा सकेगा जब मामला अधीनस्थ न्यायालय में विचाराधीन हो। 

उत्प्रेषण -

  • इसका प्रयोग उच्चत्तर न्यायालय के द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों के विरुद्ध किसी भी ऐसे मामले पर निर्णय दिया जा चुका है तथा उच्चत्तर न्यायालय के अनुसार अधीनस्थ न्यायालय के निर्णय में विधि संबंधी कोई भूल हुई हो या अधीनस्थ न्यायालय ने अपने अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन करते हुए निर्णय दिया हो अथवा प्राकृतिक न्यायालय के सिद्धांत का उल्लंघन हुआ हो तो उसे रद्द कर अपने पास मंगवा सकता है एवं संबंधित मामले की सूचना भी प्राप्त कर सकता है। इसलिए उत्प्रेषण को पोस्टमार्टम की संज्ञा दी जाती है।
  • प्रतिषेध तथा उत्प्रेषण दोनों न्यायिक रिट है, जिसका प्रयोग कार्यपालिका, विधायिका तथा प्रशासनिक अधिकारियों के विरुद्ध नहीं किया जा सकेगा। प्रतिषेध का प्रयोग प्रारंभिक चरण में कार्यवाही के दौरान कार्रवाई को रोकने के लिए किया जाता है जबकि उत्प्रेषण का प्रयोग दूसरे चरण में कार्रवाई में दिए गए निर्णय को रद्द करने के लिए किया जाता है। 

अधिकार पृच्छा -

  • इसका प्रयोग न्यायालय के द्वारा तब किया जाता है जब कोई व्यक्ति गैर वैधानिक तरीके से किसी भी सार्वजनिक पद को धारण किया हो, तो न्यायालय इसके माध्यम से उसके पद का आधार पूछता है।
रिट जारी करने के क्षेत्र में उच्च न्यायालयों का क्षेत्राधिकार - 
  • उच्चतम न्यायालय की तुलना में उच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार व्यापक है क्योंकि उच्चतम न्यायालय के द्वारा केवल मूल अधिकारों के संरक्षण के लिए ही रिट का प्रयोग किया जाता है जबकि उच्च न्यायालयों को मूल अधिकारों के साथ-साथ अन्य मामलों में भी रिट जारी करने की शक्ति प्राप्त है। परंतु उच्च न्यायालय मूल अधिकारों के संदर्भ में रिट जारी करने से इनकार कर सकता है परंतु उच्चतम न्यायालय के द्वारा इनकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि अनुच्छेद 32(2) के अंतर्गत संविधान ने उच्चतम न्यायालय का यह दायित्व निर्धारित किया है कि वह मूल अधिकारों का संरक्षण करें। इसलिए उच्चतम न्यायालय को मूल अधिकारों का संरक्षक / अभिभावक की संज्ञा दी जाती है।

मूल अधिकारों से संबंधित अन्य उपबंध -

अपवाद -

अनुच्छेद 33 - 

  • इसके अंतर्गत संसद को विधि के माध्यम से सैन्य बलों, पुलिस, खुफिया एजेंसियों, दूरसंचार के कर्मचारियों में अनुशासन एवं कर्तव्य भावना के लिए मूल अधिकारों को प्रतिबंधित करने की शक्ति प्रदान की गई है एवं संसद द्वारा इस प्रकार बनाई गई विधि को मूल अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकेगी। 

अनुच्छेद 34 -

  • इसके अंतर्गत यह उपबंध किया गया है कि सैन्य शासन (मार्शल लॉ) के दौरान संसद सेना के द्वारा किए गए कार्यों को विधि के माध्यम से मान्यता प्रदान कर सकेगी एवं सैन्य शासन के दौरान वहां के लोगों के मूल अधिकारों को प्रतिबंधित किया जा सकेगा (सैन्य बल विशेष शक्ति अधिनियम 1958 कानून का संसद के द्वारा निर्माण किया गया तथा वर्तमान में यह अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों एवं जम्मू कश्मीर में विद्यमान है। इसके अंतर्गत राष्ट्रपति या राज्यपाल संपूर्ण राज्य अथवा उसके किसी भी भाग को अशांत क्षेत्र घोषित कर वहां के कानून तथा व्यवस्था की जिम्मेदारी सैन्य बलों को प्रदान कर सकते हैं। 
  • इसके अंतर्गत सेना को बिना किसी पूर्व सूचना के किसी भी क्षेत्र में प्रवेश करने, घर की तलाशी लेने, वाहन की तलाशी लेने तथा उसे जब्त करने, गोली मारने तक के अधिकार प्राप्त हो जाते हैं। 

अनुच्छेद 35 -

  • इसके अंतर्गत मूल अधिकारों को प्रभावी बनाने के लिए तथा कुछ मूल अधिकारों के दंड के लिए विधि निर्माण की शक्ति संसद को प्रदान की गई है।

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