भारतीय राष्ट्रपति (Indian President) महत्वपूर्ण अनुच्छेद
भारतीय संविधान के भाग 5 में अनुच्छेद 52 से लेकर 78 तक संघीय कार्यपालिका का उपबंध किया गया है, जिसका मुख्य कार्य व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित विधियों को क्रियान्वित करना तथा शासन का संचालन करना है। इसके अंतर्गत राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा मंत्री-परिषद एवं महान्यायवादी शामिल होते हैं।
- भारत में ब्रिटेन के समान संसदीय शासन प्रणाली का अनुसरण किया गया है परंतु ब्रिटेन में वंशानुगत शासन को मान्यता प्रदान की गई है जबकि भारत में संसदीय शासन प्रणाली को गणराज्य के साथ जोड़ा गया है।
- संसदीय शासन प्रणाली के अंतर्गत कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका एक दूसरे से संबंधित होती है एवं कार्यपालिका अपने समस्त कार्य के लिए व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होती है।
- संसदीय शासन में समस्त शासन सत्ता को दो भागों में विभक्त किया जाता है- नाम मात्र की कार्यपालिका तथा वास्तविक कार्यपालिका।
- नाम मात्र की कार्यपालिका का प्रमुख भारत में राष्ट्रपति होता है, लेकिन उसकी समस्त शक्तियों का वास्तविक प्रयोग मंत्री-परिषद के द्वारा किया जाता है, जिसका अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता है।
- भारतीय राष्ट्रपति के लिए अनेक शब्दों के प्रयोग किए जाते हैं - रबड़ का स्टांप, औपचारिक प्रमुख, राष्ट्र का प्रमुख, संसदीय शासन का मुखिया, संघीय कार्यपालिका का प्रमुख, राज्य का प्रमुख, संवैधानिक अध्यक्ष, प्रथम नागरिक, सर्वोच्च सेनापति, गणराज्य का प्रमुख आदि।
अनुच्छेद 52 - भारत का राष्ट्रपति
- भारतीय संविधान का सबसे छोटा परंतु सबसे महत्वपूर्ण अनुच्छेद है क्योंकि इसके अंतर्गत संविधान में देश के सर्वोच्च पद अर्थात राष्ट्रपति का उपबंध किया गया है। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अनुशंसा पर राष्ट्रपति शब्द का प्रयोग किया गया था।
अनुच्छेद 53 - संघ की कार्यपालिका शक्ति
- भारतीय संघ की समस्त कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी। जिसका प्रयोग राष्ट्रपति संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थों के माध्यम से करेगा।
अनुच्छेद 54 - राष्ट्रपति का निर्वाचन
- भारतीय राष्ट्रपति का चुनाव जनता द्वारा परोक्ष / अप्रत्यक्ष रूप से एक निर्वाचक मंडल के माध्यम से संपन्न किया जाता है। जबकि संविधान सभा में K.T. शाह ने वयस्क मताधिकार के आधार पर प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रपति के निर्वाचन की मांग की थी।
- राष्ट्रपति के निर्वाचक मंडल में संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य, राज्य-विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य एवं केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली व पुद्दुचेरी विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों को शामिल किया गया है। (70वें संविधान संशोधन अधिनियम 1992 के माध्यम से दिल्ली तथा पुडुचेरी की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों को राज्य के रूप में शामिल किया गया है) इस निर्वाचक मंडल में मनोनीत सदस्य तथा राज्य विधान-परिषदों के सदस्यों को शामिल नहीं किया गया है अर्थात् इनके द्वारा राष्ट्रपति के निर्वाचन में भागीदारी नहीं की जाती है।
अनुच्छेद 55 - राष्ट्रपति के निर्वाचन की रीति
- निर्वाचन की प्रक्रिया आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल संक्रमणीय मत पद्धति के माध्यम से गुप्त मतदान के द्वारा की जाती है।
- राष्ट्रपति के चुनाव में विभिन्न राज्यों एवं संघ तथा राज्यों के बीच मतों की एकरूपता के लिए मत मूल्य निकाला जाता है एवं सांसदों का मत मूल्य समान होता है, जबकि विधायकों का मत मूल्य अलग-अलग होता है क्योंकि विभिन्न राज्यों में विधायक अलग-अलग जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है। एक विधायक का मत मूल्य निकालनें के लिए राज्य की कुल जनसंख्या को 1000 से गुणा करके, राज्य विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों का भाग दिया जाता है।
- एक सांसद का मत मूल्य निकालनें के लिए समस्त राज्यों के विधायकों के मत मूल्यों के योग में संसद के कुल निर्वाचित सदस्यों का भाग दिया जाता है।
- राष्ट्रपति के चुनाव में मत मूल्य 1971 की जनसंख्या के आधार पर निकाला जाता है तथा 84वें संविधान संशोधन अधिनियम 2001 के माध्यम से यह उपबंध किया गया की 2026 के पश्चात नई जनगणना के आंकड़े प्रकाशित होने तक मत मूल्य का आधार 1971 की जनसंख्या ही बनी रहेगी।
- वर्तमान में एक सांसद का मत मूल्य 708 हैं , जबकि उत्तर-प्रदेश के एक विधायक का मत मूल्य 208, तमिलनाडु व झारखंड के एक विधायक का 176, महाराष्ट्र के एक विधायक का मत मूल्य 175, बिहार के एक विधायक का मत मूल्य 173 व राजस्थान में एक विधायक का मत मूल्य 129 है। सर्वाधिक मत मूल्य उत्तर-प्रदेश के विधायक का है जबकि सबसे कम सिक्किम के विधायक का है।
- वी.वी. गिरी भारत के एकमात्र राष्ट्रपति है, जिनका चुनाव दूसरी वरीयता के माध्यम से हुआ था।
- राष्ट्रपति के निर्वाचक मंडल में यदि कुछ स्थान रिक्त है तो इस आधार पर राष्ट्रपति के निर्वाचन को उच्चतम न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकेगी। (11वां संविधान संशोधन अधिनियम 1961 द्वारा)
- यदि राष्ट्रपति के निर्वाचन के समय किसी भी राज्य की विधानसभा भंग / विघटित है तो वहां के सदस्य राष्ट्रपति के निर्वाचन में भागीदारी नहीं करेंगे। परंतु यदि विधानसभा निलंबित है तो सदस्यों के द्वारा राष्ट्रपति के निर्वाचन में भागीदारी की जा सकेगी।
अनुच्छेद 56 - राष्ट्रपति की पदावधि
- राष्ट्रपति का कार्यकाल पद ग्रहण की तिथि से 5 वर्ष तक होता है, परंतु वह उपराष्ट्रपति को अपना त्यागपत्र संबोधित कर पहले भी पद से मुक्त हो सकता है एवं उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति के त्यागपत्र की सर्वप्रथम सूचना लोकसभा अध्यक्ष / स्पीकर को प्रदान करेगा। राष्ट्रपति को उसके कार्यकाल की समाप्ति के पूर्व महाभियोग के माध्यम से पद से हटाया जा सकेगा, जिसकी प्रक्रिया का उल्लेख अनुच्छेद 61 में किया गया है। राष्ट्रपति अपने पद पर तब तक बना रहेगा, जब तक अगला उत्तराधिकारी पद धारण नहीं कर लेता है।
अनुच्छेद 57 - पुनर्निर्वाचन के लिए पात्रता
- भारत का कोई नागरिक असीमित बार राष्ट्रपति पद को धारण कर सकता है अर्थात भारतीय संविधान राष्ट्रपति के पुनर्निर्वाचन पर कोई प्रतिबंध आरोपित नहीं करता है। अमेरिका में कोई व्यक्ति दो बार राष्ट्रपति पद को धारण कर सकता है।
अनुच्छेद 58 - राष्ट्रपति निर्वाचित होने के लिए अर्हताएं
- योग्यता / अहर्ताएं - कोई भी व्यक्ति भारत में राष्ट्रपति बनने के लिए योग्य होगा यदि - (i) वह भारत का नागरिक हो (जन्म से आवश्यक नहीं), (ii) आयु 35 वर्ष पूर्ण हो चुकी हो (अधिकतम आयु का उपबंध नहीं है), (iii) वह लोकसभा का सदस्य बनने की योग्यता रखता हो, (iv) वह भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन किसी भी लाभ के पद को धारण न कर रहा हो (राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल, संघ तथा राज्य के मंत्री लाभ के पद के दायरे में शामिल नहीं होते)
- राष्ट्रपति के लिए निर्वाचक मंडल के 50 सदस्य प्रस्तावक के रूप में तथा 50 सदस्य समर्थक (अनुमोदक) के रूप में आवश्यक है तथा इस पद की जमानत राशि ₹15000 निर्धारित की गई है एवं ऐसा उपबंध संविधान में नहीं अपितु कानून के अंतर्गत किया गया है।
अनुच्छेद 59 - राष्ट्रपति पद के लिए शर्तें
- कोई भी संसद या विधानमंडल का सदस्य राष्ट्रपति के पद को धारण नहीं कर सकेगा तथा यदि संसद या विधानमंडल का कोई सदस्य राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित हो जाता है तो पद ग्रहण की तारीख से उसका स्थान वहां से रिक्त हो जाएगा।
- राष्ट्रपति अपने कार्यकाल के दौरान अन्य किसी भी लाभ के पद को धारण नहीं कर सकेंगे। राष्ट्रपति बिना किराया दिए हुए अपने शासकीय निवास के प्रयोग का हकदार होंगे तथा उनके द्वारा ऐसे विशेषाधिकारों, सुविधाओं, भत्तों एवं उपलब्धियां का प्रयोग किया जाएगा, जिसका निर्धारण सांसद करें एवं राष्ट्रपति के कार्यकाल के दौरान उसके भत्तों, सुविधाओं एवं उपलब्धियां में किसी भी प्रकार की कटौती नहीं की जाएगी। (वर्तमान में भारतीय राष्ट्रपति का वेतन ₹500000 है जो कि भारतीय संचित निधि पर भारित होता है अर्थात राष्ट्रपति के वेतन पर संसद में बहस तो की जा सकती है परंतु मतदान का प्रयोग नहीं होगा)
अनुच्छेद 60 - राष्ट्रपति द्वारा शपथ या प्रतिज्ञान
- उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अथवा उनकी अनुपस्थिति में उच्चतम न्यायालय के वरिष्टतम न्यायाधीश द्वारा राष्ट्रपति को संविधान एवं विधि के परिरक्षण, संरक्षण एवं प्रतिरक्षण की तथा जनता की सेवा एवं कल्याण की शपथ प्रदान की जाती है।
अनुच्छेद 61 - राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाने की प्रक्रिया
- केवल संविधान का अतिक्रमण करने के आधार पर राष्ट्रपति को महाभियोग की प्रक्रिया के माध्यम से उसके पद से हटाया जा सकेगा तथा महाभियोग का संकल्प संसद में लाने से 14 दिन पूर्व राष्ट्रपति को सूचित करना आवश्यक है एवं महाभियोग का संकल्प संसद के किसी भी सदन में प्रस्तावित किया जा सकता है। महाभियोग का संकल्प लाने के लिए सदन के कुल सदस्यों के 1/4 सदस्यों का आशय होना आवश्यक है एवं पारित होने के लिए सदन के कुल सदस्यों के 2/3 बहुमत की आवश्यकता होती है। यदि एक सदन से महाभियोग का संकल्प पारित हो जाता है तो दूसरे सदन के द्वारा इसकी जांच की जाएगी, जहां पर राष्ट्रपति स्वयं व्यक्तिगत रूप से अथवा अपने किसी मध्यस्थ के माध्यम से अपना पक्ष रख सकेंगे।
- राष्ट्रपति के द्वारा अपना पक्ष रखने के बावजूद यदि दूसरे सदन के द्वारा अपने कुल सदस्यों के 2/3 बहुमत से महाभियोग का संकल्प पारित कर दिया जाता है तो उस तारीख से राष्ट्रपति के पद पर आसीन व्यक्ति का पद समाप्त हो जाएगा।
- अभी तक किसी भी भारतीय राष्ट्रपति को महाभियोग के संकल्प के माध्यम से नहीं हटाया गया है। महाभियोग की प्रक्रिया में संसद के सभी सदस्य अर्थात निर्वाचित एवं मनोनीत के द्वारा भागीदारी की जाती है। यद्यपि मनोनीत सदस्यों को राष्ट्रपति के निर्वाचन में भागीदारी का अधिकार प्राप्त नहीं है।
- महाभियोग एक अर्द्ध-न्यायिक प्रक्रिया है जिसे न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकेगी।
अनुच्छेद 62 - राष्ट्रपति के पद में रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचन करने का समय और आकस्मिक रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचित व्यक्ति की पदावधि
- राष्ट्रपति का निर्वाचन उसके कार्यकाल की समाप्ति के पूर्व संपन्न किया जाना आवश्यक है तथा यदि कारणवश राष्ट्रपति का पद रिक्त हो जाए (मृत्यु, त्यागपत्र, महाभियोग के माध्यम से पद से हटाना, निर्वाचन का शून्य होना) तो अगले 6 माह की अवधि में राष्ट्रपति का निर्वाचन करवाया जाना आवश्यक है तथा अगला उत्तराधिकारी पूरे 5 वर्ष तक अपने पद को धारण कर सकेगा।
राष्ट्रपति की शक्तियां -
- (i) सामान्य शक्तियां - कार्यपालिका शक्तियां, विधायी शक्तियां, न्यायिक शक्तियां, वित्तीय शक्तियां, सैनिक शक्तियां, कूटनीतिक शक्तियां, वीटो शक्तियां (विधायी शक्ति का भाग) (ii) आपातकालीन शक्तियां - राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352), राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356), वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360)
सामान्य शक्तियां -
कार्यपालिका शक्ति -
- अनुच्छेद 53 के अंतर्गत भारतीय संघ की समस्त कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित की गई है। इसलिए राष्ट्रपति को संघीय कार्यपालिका का प्रमुख माना जाता है।
- अनुच्छेद 77 के अंतर्गत भारत सरकार के समस्त कार्यों का संचालन राष्ट्रपति के नाम से किया जाता है अर्थात भारत सरकार के सभी औपचारिक निर्णय राष्ट्रपति के निर्णय होते हैं। इसके अंतर्गत राष्ट्रपति को कार्यों को सुविधाजनक बनाने के लिए तथा मंत्रियों में कार्यों का आवंटन करने के लिए नियम बनाने का अधिकार प्राप्त है।
- अनुच्छेद 78 के अंतर्गत राष्ट्रपति प्रधानमंत्री से प्रशासन एवं विधान संबंधी सूचना प्राप्त कर सकेगा एवं प्रधानमंत्री का यह दायित्व / कर्तव्य है कि वह राष्ट्रपति को समस्त प्रशासनिक सूचनाओं से अवगत करवाएं।
- अनुच्छेद 239 के अंतर्गत समस्त केंद्र शासित प्रदेशों का प्रशासन राष्ट्रपति के नाम पर संचालित किया जाता है।
- अनुच्छेद 240 के अंतर्गत राष्ट्रपति कुछ संघ शासित प्रदेशों जैसे अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह, लक्षद्वीप, दादरा-नागर हवेली एवं दमन तथा दीव और पुद्दुचेरी के शांति, प्रगति एवं सुशासन के लिए नियम निर्माण करेगा।
- अनुच्छेद 263 के अंतर्गत राष्ट्रपति केंद्र तथा राज्यों के मध्य सहयोग स्थापित करने के लिए एवं विभिन्न राज्यों के मध्य उत्पन्न विवादों के निराकरण के लिए लोक हित की दृष्टि से अंतर्राज्यीय परिषद का गठन कर सकेगा।
- भारत में सभी महत्वपूर्ण नियुक्तियां राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है। जैसे - प्रधानमंत्री एवं मंत्री, राज्यों में राज्यपाल, केंद्र शासित प्रदेशों में उपराज्यपाल तथा प्रशासक, उच्चतम तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, महान्यायवादी, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, मुख्य चुनाव आयुक्त एवं अन्य निर्वाचन आयुक्त, संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्य, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति जनजाति एवं पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्य, मुख्य सूचना आयुक्त तथा अन्य सूचना आयुक्त, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्य, दिल्ली एवं पुद्दुचेरी के मुख्यमंत्री, सभी केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति, मुख्य सतर्कता आयुक्त एवं अन्य सतर्कता आयुक्त आदि। इसके अतिरिक्त इन सभी को पद से हटाने संबंधी कार्य।
विधायी शक्ति -
- अनुच्छेद 79 के अंतर्गत राष्ट्रपति संसद का अभिन्न अंग होता है अर्थात संसद का गठन राष्ट्रपति, लोकसभा एवं राज्यसभा से मिलकर होगा।
- अनुच्छेद 80 के अंतर्गत राष्ट्रपति के द्वारा राज्यसभा में 12 सदस्यों को मनोनीत किया जाएगा। जिनका संबंध साहित्य, विज्ञान, कला, समाज सेवा जैसे यथा क्षेत्रों से होगा।
- अनुच्छेद 331 के अंतर्गत राष्ट्रपति यदि लोकसभा में आंग्ल-भारतीय वर्ग का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो दो सदस्यों को मनोनीत कर सकेगा। (104वें संविधान संशोधन अधिनियम 2020 के माध्यम से इस प्रावधान को निरसित कर दिया गया है)
- अनुच्छेद 85 के अंतर्गत राष्ट्रपति संसद के प्रत्येक सदन को ऐसे समय व स्थान पर जो कि वह उचित समझे, संसद के सत्र को आहूत (बुलाना) कर सकेगा, उसका सत्रावसान किया जाएगा तथा लोकसभा को विघटित / भंग करने की शक्ति राष्ट्रपति में निहित है।
- अनुच्छेद 86 के अंतर्गत राष्ट्रपति को संसद के किसी भी सदन में अथवा एक साथ समवेत दोनों सदनों में अभिभाषण जारी कर सकेगा तथा इस उद्देश्य के लिए सदस्यों की उपस्थिति की अपेक्षा कर सकेगा एवं राष्ट्रपति को संसद में संदेश भेजने का अधिकार प्राप्त है। (लंबित विधायक पर)
- अनुच्छेद 87 के अंतर्गत राष्ट्रपति लोकसभा की आम निर्वाचन के पश्चात प्रथम सत्र के आरंभ में एवं प्रत्येक वर्ष संसद के प्रथम सत्र के आरंभ में एक साथ समवेत संसद की बैठक में विशेष अभिभाषण जारी कर सकेगा, जिसमें आने वाले वर्ष में सरकार के कार्यक्रम तथा नीतियों को रखा जाएगा।
- अनुच्छेद 91 के अंतर्गत राज्यसभा में सभापति तथा उपसभापति की अनुपस्थिति में राज्यसभा की कार्यवाही बाधित होने पर राष्ट्रपति के द्वारा राज्यसभा के किसी भी सदस्य को कार्यवाहक सभापति के रूप में नियुक्त किया जा सकेगा।
- अनुच्छेद 95 के अंतर्गत लोकसभा में अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष की अनुपस्थिति में राष्ट्रपति के द्वारा कार्यवाहक अध्यक्ष की नियुक्ति की जा सकेगी।
- अनुच्छेद 103 के अंतर्गत राष्ट्रपति संसद सदस्यों की निर्योग्यता का निर्धारण करता है तथा राष्ट्रपति यह कार्य केंद्रीय निर्वाचन आयोग के परामर्श के अनुसार करेगा।
- अनुच्छेद 108 के अंतर्गत राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों में साधारण विधेयक पर असहमति की स्थिति में संयुक्त बैठक बुलाता है। जिसकी अध्यक्षता अनुच्छेद 118(4) के अंतर्गत लोकसभा अध्यक्ष के द्वारा की जाती है।
- अनुच्छेद 111 के अंतर्गत संसद द्वारा पारित सभी विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति से अधिनियम का रूप ग्रहण करते हैं। धन विधेयक व संविधान संशोधन विधेयक को छोड़कर अन्य साधारण विधेयकों को राष्ट्रपति एक बार संसद के पास पुनर्विचार के लिए लौटा सकते हैं, परंतु पुनर्विचार के पश्चात पारित विधेयक पर सहमति प्रदान करने के लिए राष्ट्रपति बाध्य होगा।
- अनुच्छेद 123 के अंतर्गत जब संसद सत्र में ना हो तथा ऐसी परिस्थिति विद्यमान हो गई हो की विधि निर्माण आवश्यक हो गया हो एवं जिसका समाधान राष्ट्रपति को हुआ हो तो ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति को अध्यादेश प्रख्यापित करने की शक्ति प्राप्त है। जिसकी अधिकतम अवधि 6 माह तक एवं सत्र आयोजित होने पर 6 सप्ताह तक रहती है। अध्यादेश का वही बल एवं प्रभाव होगा जो कि संसद के द्वारा बनाए गए किसी भी कानून का होता है एवं यदि अध्यादेश को संसद के दोनों सदनों की सहमति प्राप्त हो जाती है तो अध्यादेश विधि का रूप ग्रहण कर लेता है। राष्ट्रपति इसे पूर्व में भी वापस ले सकता है। (राष्ट्रपति के समाधान से अभिप्राय केंद्रीय मंत्रिमंडल के समाधान से हैं अर्थात अध्यादेश जारी करना राष्ट्रपति की स्व-विवेकी शक्ति नहीं है)। 1969 में इंदिरा गांधी सरकार के द्वारा बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया, जिसे आर.सी. कूपर वाद में न्यायपालिका में चुनौती दी गई। परिणाम स्वरुप 38वें संविधान संशोधन अधिनियम 1975 के माध्यम से यह प्रावधान किया गया कि अध्यादेश की न्यायपालिका के द्वारा समीक्षा नहीं की जा सकेगी। परंतु 44वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 से फिर से न्यायपालिका को अध्यादेश की समीक्षा का अधिकार प्रदान किया गया अर्थात वर्तमान में अध्यादेश न्यायिक समीक्षा के अधीन है। अर्थात यदि किसी अध्यादेश के द्वारा मूल अधिकारों अथवा संविधान के मूल ढांचे का अतिक्रमण किया जा रहा हो तो न्यायपालिका के द्वारा उसे अवैध घोषित किया जा सकेगा।
न्यायिक शक्तियां -
- अनुच्छेद 72 के अंतर्गत राष्ट्रपति को उन सभी मामलों में जहां पर मृत्युदंड की सजा प्रदान की गई हो, सैन्य न्यायालयों के द्वारा दंड दिया गया हो अथवा ऐसे मामले जिसका संबंध संघ की कार्यपालिका शक्ति के विस्तार से हो,
- क्षमादान, लघुकरण, परिहार, विराम तथा निलंबन की शक्ति प्राप्त है।
- क्षमादान - इसके अंतर्गत अपराधी के ना केवल दंड को समाप्त किया जाता है अपितु उसे ऐसी स्थिति प्रदान की जाती है जैसे कि उसने कोई भी अपराध नहीं किया गया हो अर्थात उसे पूर्णतः निर्दोष घोषित किया जाता है।
- लघुकरण - इसके अंतर्गत अपराधी के दंड की मात्रा एवं प्रकृति दोनों में परिवर्तन किया जाता है। जैसे 10 वर्ष कठोर कारावास को घटाकर 5 वर्ष साधारण कारावास करना।
- परिहार - इसके अंतर्गत दंड की प्रकृति में नहीं अपितु केवल मात्रा में परिवर्तन किया जाता है। जैसे 10 वर्ष कठोर कारावास को 5 वर्ष कठोर कारावास करना।
- विराम - इसके अंतर्गत किसी भी विशेष कारण से दंड में परिवर्तन किया जाता है, जो की मात्रा, प्रकृति अथवा दोनों से संबंधित हो सकता है। जैसे गर्भवती महिला के दंड में परिवर्तन करना।
- निलंबन - इसके अंतर्गत कुछ समय के लिए दंड को अस्थायी रूप से निलंबित कर दिया जाता है।
- राष्ट्रपति की क्षमादान की शक्ति स्व-विवेकी शक्ति नहीं है, अपितु राष्ट्रपति इसका प्रयोग केंद्रीय मंत्री परिषद की सलाह पर करता है तथा राष्ट्रपति द्वारा दिए गए निर्णय की न्यायपालिका के द्वारा समीक्षा की जा सकती है अर्थात क्षमादान की शक्ति न्यायिक समीक्षा के अधीन है।
- अनुच्छेद 143 के अंतर्गत राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय से निम्न मामलों में परामर्श ग्रहण कर सकता है - (i) ऐसे मामले जो की विधि या तथ्य से संबंधित हो एवं जिनका संबंध सार्वजनिक हितों से हो, (ii) संविधान लागू होने से पूर्व की कोई भी संधि, समझौता, भारत सरकार तथा देशी रियासतों के मध्य वार्ता आदि से संबंधित मामले
- प्रथम मामले में उच्चतम न्यायालय राष्ट्रपति को परामर्श प्रदान करने के लिए बाध्य नहीं है एवं यदि उच्चतम न्यायालय के द्वारा परामर्श प्रदान भी किया जाता है तो राष्ट्रपति के लिए परामर्श मानना भी बाध्य नहीं है।
- परंतु दूसरे मामले में उच्चतम न्यायालय राष्ट्रपति को परामर्श प्रदान करने के लिए बाध्य हैं जबकि राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है।
- परामर्श संबंधी प्रावधान भारत ने कनाडा से ग्रहण किए हैं।
वित्तीय शक्तियां -
- राष्ट्रपति के नाम से प्रतिवर्ष बजट प्रस्तुत किया जाता है। धन विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व सिफारिश से ही लोकसभा में रखे जाते हैं। आकस्मिक निधि पर राष्ट्रपति का नियंत्रण होता है। अनुच्छेद 280 के अंतर्गत राष्ट्रपति के द्वारा केंद्र व राज्यों के बीच वित्त की समीक्षा के लिए तथा राज्यों को भारतीय संचित निधि से अनुदान प्रदान करने के लिए राष्ट्रपति के द्वारा प्रत्येक 5 वर्ष पर वित्त आयोग का गठन किया जाता है।
सैन्य शक्तियां -
- राष्ट्रपति भारत में सर्वोच्च सेनापति की भूमिका का निर्माण करता है तथा अनुच्छेद 53(2) के अंतर्गत सर्वोच्च समादेश की शक्ति राष्ट्रपति को प्रदान की गई है।
- राष्ट्रपति के द्वारा ही तीनों सेनाओं के प्रमुखों की नियुक्ति की जाती है एवं संसद की सहमति से युद्ध की घोषणा की जाती है एवं भारत की सेना को अन्यत्र भेजा जाता है।
कूटनीतिक शक्तियां -
- राजदूतों तथा उच्चायुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है एवं अन्य देशों के राजदूतों के प्रमाण पत्र को राष्ट्रपति स्वीकार करता है।
- अंतर्राष्ट्रीय जगत में राष्ट्रपति संपूर्ण भारत का प्रतिनिधित्व करता है।
- भारत सरकार के द्वारा सभी अंतर्राष्ट्रीय संधियां एवं समझौते राष्ट्रपति के नाम से संपादित किए जाते हैं।
वीटो (निषेधाधिकार) की शक्ति -
- वीटो राष्ट्रपति की विधायी शक्ति का अंग है तथा अनुच्छेद 111 के अंतर्गत संसद द्वारा पारित विधेयक जब राष्ट्रपति की सहमति के लिए भेजा जाता है तो भारतीय राष्ट्रपति के द्वारा तीन प्रकार के वीटो का प्रयोग किया जा सकता है-
- पूर्ण या निरपेक्ष निषेधाधिकार - इसके अंतर्गत राष्ट्रपति संसद द्वारा पारित विधेयक पर सहमति देने से इंकार कर देता है। इसका प्रयोग राष्ट्रपति द्वारा सामान्यतः गैर-सरकारी विधेयकों पर किया जाता है। सर्वप्रथम 1954 में पेप्सू विधेयक पर डॉ. राजेंद्र प्रसाद के द्वारा पूर्ण निषेधाधिकार का प्रयोग किया गया।
- निलंबनकारी निषेधाधिकार - इसके अंतर्गत राष्ट्रपति संसद द्वारा पारित विधेयक को एक बार पुनर्विचार के लिए लौटा सकता है।
- जे. बी. निषेधाधिकार - इसके अंतर्गत राष्ट्रपति के द्वारा ना तो विधेयक पर सहमति प्रदान की जाती है तथा ना ही सहमति देने से इनकार किया जाता है अर्थात विधेयक को राष्ट्रपति अपने पास सुरक्षित रख लेता है। भारतीय संविधान में इस बात का उल्लेख नहीं किया गया है कि राष्ट्रपति कितनी अवधि के भीतर संसद द्वारा पारित विधेयक पर सहमति प्रदान करेंगे, इसलिए राष्ट्रपति के द्वारा इसका प्रयोग किया जा सकता है। 1986 में डाकघर विधेयक पर राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के द्वारा जे.बी. निषेधाधिकार का प्रयोग किया गया था।
आपातकालीन शक्तियां (भाग - 18)
राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352) -
- 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 के माध्यम से यह प्रावधान किया गया की राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा संपूर्ण देश अथवा उसके किसी भी भाग में की जा सकेगी।
- युद्ध, बाह्य आक्रमण एवं सशस्त्र विद्रोह के आधार पर परिस्थिति पैदा होने पर अथवा इसकी आशंका के समाधान पर राष्ट्रपति के द्वारा राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा की जा सकेगी।
- मूल संविधान में राष्ट्रीय आपात का आधार आंतरिक अशांति को बनाया गया था, परंतु 44वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 के माध्यम से इसे बदलकर सशस्त्र विद्रोह किया गया।
- यदि राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा युद्ध एवं बाह्य आक्रमण के आधार पर की गई हो तो उसे बाह्य आपात एवं सशस्त्र विद्रोह के आधार पर की गई हो तो उसे आंतरिक आपात की संज्ञा दी जाती है।
उद्घोषणा का तरीका -
- 44वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 के माध्यम से यह उपबंध किया गया कि केंद्रीय मंत्रिमंडल की लिखित सहमति से ही राष्ट्रपति के द्वारा राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा की जा सकेगी।
जारी रखने की प्रक्रिया -
- राष्ट्रीय आपात के संकल्प को एक माह की अवधि के भीतर संसद के समक्ष रखा जाना आवश्यक है अर्थात इसे लोकसभा या राज्यसभा किसी भी सदन में प्रस्तावित किया जा सकता है। परंतु एक माह से अधिक जारी रखने के लिए दोनों सदनों में अलग-अलग प्रस्ताव का विशेष बहुमत से पारित होना आवश्यक है।
- यदि इस समय लोकसभा भंग है तो प्रस्ताव को मंजूरी राज्यसभा द्वारा प्रदान की जाएगी। लेकिन नई लोकसभा के पुनर्गठन होने पर 30 दिन की अवधि के भीतर इसकी मंजूरी मिलना आवश्यक है, अन्यथा राष्ट्रीय आपात का प्रभाव समाप्त हो जाएगा।
अवधि -
- प्रारंभ में 6 माह के लिए तथा संसद के द्वारा विशेष बहुमत से सहमति मिलने पर अधिकतम अनिश्चितकाल के लिए राष्ट्रीय आपात का प्रयोग किया जा सकेगा।
उद्घोषणा के प्रभाव -
- अनुच्छेद 358 के अंतर्गत यह प्रावधान किया गया है कि यदि राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा युद्ध अथवा बाह्य आक्रमण के आधार पर की गई हो तो अनुच्छेद 19 की स्वतंत्रताएं स्वत: ही निलंबित हो जाएगी। परंतु 44वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 के माध्यम से यह उपबंध किया गया कि यदि सशस्त्र विद्रोह के आधार पर राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा की गई है तो ऐसी स्थिति में अनुच्छेद 19 की स्वतंत्रताएं निलंबित नहीं होगी।
- अनुच्छेद 359 के अंतर्गत मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए नागरिकों के न्यायालय जाने के अधिकार को निलंबित करने की शक्ति राष्ट्रपति के पास आ जाती है। परंतु 44वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 के माध्यम से यह उपबंध किया गया कि अनुच्छेद 20 तथा अनुच्छेद 21 के न्यायालय में प्रवर्तन के अधिकार को आपातकाल के दौरान भी राष्ट्रपति के द्वारा भी निलंबित नहीं किया जा सकेगा।
- संघ की कार्यपालिका, राज्यों की कार्यपालिका को यह दिशा निर्देश जारी कर सकेगी कि उन्हें अपने शासन का संचालन किस प्रकार से करना है अर्थात राज्य सरकारों पर केंद्र का नियंत्रण स्थापित हो जाता है। यद्यपि राज्य सरकारों का विघटन नहीं किया जाता है।
- राष्ट्रपति आदेश के माध्यम से केंद्र तथा राज्यों के बीच राजस्व वितरण संबंधी उपबंधों को परिवर्तित कर सकेगा।
- संसद विधि के माध्यम से लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल में राष्ट्रीय आपात के दौरान एक बार में एक वर्ष की वृद्धि कर सकेगी तथा संसद के द्वारा निश्चित बार कार्यकाल को बढ़ाया जा सकेगा।
- अनुच्छेद 250 के अंतर्गत संसद राज्य सूची के विषयों पर विधि निर्माण का प्रयोग कर सकेगी।
आपात की समाप्ति -
- उद्घोषणा वापस लेने पर, संसद द्वारा एक माह की अवधि में अनुमति नहीं प्रदान करने पर, लोकसभा के द्वारा साधारण बहुमत के माध्यम से एक प्रस्ताव पारित कर राष्ट्रीय आपात को समाप्त किया जा सकता है।
व्यवहार में प्रयोग -
- इसका प्रयोग व्यवहार में तीन बार किया गया है - (i) 26 अक्टूबर 1962 से 10 जनवरी 1968, (ii) 10 दिसंबर 1971 से 27 मार्च 1977, (iii) 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 (25 जून 1975 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. फखरुद्दीन अली अहमद ने यह उद्घोषणा की की आंतरिक अशांति के आधार पर भारत की सुरक्षा को गंभीर खतरा विद्यमान है)
न्यायपालिका का दृष्टिकोण -
- 38वें संविधान संशोधन अधिनियम 1975 के माध्यम से यह प्रावधान किया गया कि न्यायालय के द्वारा आपातकाल की समीक्षा नहीं की जा सकेगी। परंतु 44वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 के माध्यम से न्यायपालिका को फिर आपातकाल की समीक्षा का अधिकार प्रदान किया गया अर्थात् वर्तमान में आपातकाल न्यायिक समीक्षा के अधीन है।
राष्ट्रपति शासन / राज्य आपात / संवैधानिक आपातकाल
- अनुच्छेद 356, क्योंकि अनुच्छेद 355 के अंतर्गत भारतीय संविधान में केंद्र सरकार का यह दायित्व निर्धारित किया गया है कि वह राज्यों की बाह्य आक्रमण तथा आंतरिक अशांति से सुरक्षा प्रदान करें तथा यह सुनिश्चित करें कि राज्य का शासन संवैधानिक उपबंधों के अनुकूल संचालित हो।
- एक राज्य अथवा एक साथ कई राज्यों में राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा की जा सकती है।
- राष्ट्रपति शासन के लिए आवश्यक परिस्थितियां - (i) यदि राज्य का संवैधानिक तंत्र विफल हो गया हो अर्थात राज्य का शासन संविधान के अनुसार संचालित ना हो रहा हो। (ii) अनुच्छेद 365 के अंतर्गत केंद्र द्वारा दिए गए निर्देशों की राज्यों के द्वारा अवहेलना की जा रही हो।
लागू करने का तरीका -
- राज्यपाल के लिखित प्रतिवेदन पर अथवा राष्ट्रपति को समाधान होने पर।
जारी रखने की प्रक्रिया -
- इसे दो माह की अवधि के भीतर संसद के समक्ष रखा जाना आवश्यक है तथा संसद के दोनों सदनों के द्वारा अलग-अलग साधरण बहुमत के माध्यम से सहमति प्रदान करने पर राष्ट्रपति शासन जारी हो सकता है।
- यदि इस समय लोकसभा विघटित है तो प्रस्ताव को मंजूरी राज्यसभा के द्वारा प्रदान की जाएगी परंतु नई लोकसभा के पुनर्गठन पर 30 दिनों की अवधि के भीतर लोकसभा की मंजूरी आवश्यक है अन्यथा राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा का प्रभाव समाप्त हो जाएगा।
अवधि -
- प्रारंभ में 6 माह के लिए तथा अधिकतम 3 वर्ष के लिए प्रावधान रखा गया था, परंतु 44वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 के माध्यम से यह प्रावधान किया गया कि किसी भी राज्य में एक वर्ष से ज्यादा राष्ट्रपति शासन को जारी रखने के लिए निम्न परिस्थितियों का होना आवश्यक है - (i) संपूर्ण देश अथवा उस राज्य में राष्ट्रीय आपात विद्यमान हो, (ii) केंद्रीय निर्वाचन आयोग के द्वारा वहां पर चुनाव करवाने से इंकार कर दिया हो। ( 3 वर्ष से ज्यादा राष्ट्रपति शासन जारी रखने के लिए संविधान में संशोधन करना होगा)
उद्घोषणा के प्रभाव -
- राष्ट्रपति यह उद्घोषणा करेगा कि राज्य की समस्त विधायी शक्ति का प्रयोग संसद के द्वारा किया जाएगा एवं संसद यह शक्ति राष्ट्रपति को प्रदान करती है तथा उसे यह अधिकार देती है कि चाहे तो वह इसका प्रयोग स्वयं करें या अन्यथा किसी और को प्रदान कर दे।
- राज्यपाल के द्वारा राष्ट्रपति के नाम पर राज्य के मुख्य सचिव की सहायता से राज्य की समस्त शक्तियों का वास्तविक प्रयोग किया जाएगा। मुख्यमंत्री सहित मंत्री परिषद को बर्खास्त कर दिया जाएगा।
- संसद के द्वारा राज्य सूची के विषय पर विधि निर्माण का प्रयोग किया जा सकेगा, परंतु उच्च न्यायालय की शक्तियों में किसी प्रकार की कटौती नहीं की जा सकेगी।
- राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा के साथ ही राज्य की विधानसभा निलंबित हो जाती है अर्थात राष्ट्रपति शासन के दौरान विधानसभा का विघटित होना कोई आवश्यक शर्त नहीं है।
समाप्ति -
- उद्घोषणा वापस लेने पर, संसद के द्वारा दो माह की अवधि में मंजूरी नहीं प्रदान करने पर, 3 वर्ष का समय बीत जाने पर या न्यायपालिका के द्वारा अवैध घोषित किए जाने पर।
व्यवहार में प्रयोग -
- इसका सर्वप्रथम प्रयोग 1951 में पंजाब में किया गया। इसका सबसे लंबा कार्यकाल (5 वर्ष) पंजाब में चला। इसका सर्वाधिक बार प्रयोग उत्तर प्रदेश (10) में किया गया। छत्तीसगढ़ तथा तेलंगाना में राष्ट्रपति शासन का प्रयोग अभी तक नहीं किया गया है। राजस्थान में राष्ट्रपति शासन का प्रयोग अब तक चार बार किया जा चुका है (1967, 1977, 1980, 1992)
न्यायिक दृष्टिकोण -
- एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघवाद 1994 में उच्चतम न्यायालय के द्वारा यह निर्धारित किया गया कि अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा कि न्यायालय के द्वारा समीक्षा की जा सकेगी। तथा यदि इसका गलत तरीके से प्रयोग किया गया है तो न्यायालय के द्वारा उसे अवैध घोषित किया जा सकेगा अर्थात वर्तमान में राष्ट्रपति शासन न्यायिक समीक्षा के अधीन है।
वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360) -
- यदि देश के वित्तीय स्थायित्व / साख को खतरा पहुंच रहा हो अथवा खतरा पहुंचने की आशंका हो तो कार्यपालिका के सामान्य परामर्श पर राष्ट्रपति के द्वारा वित्तीय आपातकाल की उद्घोषणा की जा सकेगी।
- इसे दो माह की अवधि के भीतर संसद के समक्ष रखा जाना आवश्यक है तथा संसद की सहमति से वित्तीय आपातकाल जारी हो जाता है। अगर लोकसभा भंग है, तो चुनाव के बाद 30 दिनों में सहमति प्रदान करने का प्रावधान है।
- इससे प्रारंभ में छह माह के लिए तथा अधिकतम निश्चित काल के लिए लगाया जा सकेगा।
- वित्तीय आपात के दौरान केंद्र तथा राज्य सरकार के पदाधिकारी, जिसमें उच्चतम तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी शामिल है, के वेतन में कटौती की जा सकेगी। केंद्र आर्थिक दृष्टि से राज्यों को दिशा निर्देश जारी कर सकेगा, राज्य के समस्त वित्त विधेयक केंद्र सरकार की सहमति के लिए मंगवाए जा सकेंगे।
- अभी तक व्यवहार में वित्तीय आपात का एक बार भी प्रयोग नहीं हुआ है।
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